बुधवार, 29 जून 2011

मेरी जीवन यात्रा: आम आदमी.....??

मेरी जीवन यात्रा: आम आदमी.....??: "आम आदमी..... ?? तमाम सारी चीजों की परिभाषाये जानने समझने के बाद भी आज तक मैं ये नही जान पाया की आम आदमी की परिभाषा क्या हैं.. और गरीबी की ..."

मंगलवार, 28 जून 2011

आम आदमी.....??



आम आदमी.....??
तमाम सारी चीजों की परिभाषाये जानने समझने के बाद भी आज तक मैं ये नही जान पाया की आम आदमी की परिभाषा क्या हैं..और गरीबी की परिभाषा क्या हैं? क्योकि हर स्तर पर दोनो को अलग अलग नजरिये से देखा जाता है। कई जगह पता किया पर कही से एक भी ऐसा जबाब मुझे नही मिला जो ये स्पष्ट परिभाषा दे सके की आम आदमी इस तरह का होता हैं...ऐसा होता हैं वैसा होता हैं ? जिसके मन में जो आता वह वैसी ही परिभाषा गढ़ता हैं ..मीडिया अलग अलग तरीके से परिभाषा बनाती हैं .सरकार अलग तरीके से परिभाषा बनाती ..समाजविदो कि नज़र में आम आदमी की परिभाषा अलग होती हैं..पर इस देश में आम आदमी की कोई एक परिभाषा नही गढ़ी गई हैं...एक चीज़ और अपने देश में सुना हैं गरीब भी रहते हैं...तो गरीब आदमी और आम आदमी मे फ़र्क क्या हैं ? देश के तमाम बढे अर्थशास्त्रीयों ने देश में गरीबी के उपर अपनी रिपोर्ट दी हैं पी सेन गुप्ता कहते हैं कि देश में 83.7प्रतिशत लोग गरीब हैं ..सरकार कहती हैं कि देश में 42 करोड़ लोग गरीब हैं ..भारतीय जनसंख्या जनगणना विभाग कहता हैं कि भारत में 37व करोड़ गरीब रहते हैं ..किसकी माने किसकी बातो पर विश्वास करे ..जरा गौर से एक बात सोचिए कि जिस देश में सरकार को खुद पता नही हैं कि उसके देश में उसके कितने प्रतिशत नागरिक गरीब हैं या अमीर या हैं फिर जिस देश में गरीबी के आकड़े के उपर इतनी ज्यादा विवाद है, फिर हम किससे आशा कर सकते हैं कि वह कोई आम आदमी और गरीबी के बारे में अलग अलग परिभाषा तय करने कि कोशिश करें।दरअसल भारत जैसा विकास का भ्रामक चेहरा किसी और देश में देखने को नही मिलता हैं ..यूएनडीपी कि रिपोर्ट को देखो तो भारत में 70 करोड लोग भूखमरी के शिकार हैं मतलब की देश में हर पॉच में से एक व्यक्त कुपोषित है। इंटरनेशनल हंगर इंडेक्स में भारत का 66 वॉ स्थान हैं। यहॉ तक की भारत के कई राज्य तो कई अफ्रीकी  अति पिछड़े देशो से भी ज्यादा गरीब हैं। इन सभी आंकड़ों को देखते हुये अब ये भी जानने की कोशिश करते हैं आम आदमी और गरीबी क्या हैं ..
गौरतलब हैं की हमारे देश में टैक्स में छूट दी जाती भिन्न भिन्न आय पर लोगो को भिन्न तरीके से छूट मिलती हैं .सबसे कम एक लाख 60 हजार से अधिक पर और तीन लाख से कम पर 10 हजार का टैक्स सरकार लेती हैं ...साल दर साल सबसे निचले स्तर पर टैक्स वसूलने व आम लोगो राहत देने के लिये आय की उपरी सीमा बढ़ा दी जाती हैं...सरकार कहती हैं की हमने आम लोगो को टैक्स में राहत दिया हैं ...दरअसल देश कि जनता जानना ये चाहती हैं कि आखिर आम लोग कौन हैं क्योंकि देश में जब 80 प्रतिशत से ज्यादा 20 रुपये पर रोजाना अपना गुजारा करते हैं मतलब की  साल में  कुल 7200 रुपये ही कमा पाते हैं ...आखिर जब देश कि जनता कि 80 प्रतिशत आबादी केवल 7200 रुपये पर गुजारा करती हैं तो किस आम आदमी के टैक्स में छूट दिया जाता ...तेल के दाम साल में 10बार से ज्यादा बढ़ा दिये गये सरकार की तरफ से हवाला दिया गया कि तेल कंपनीयो को घाटा हो रहा हैं ....लेकिन आकड़े उठाकर देखा जाये तो पिछले पांच सालो में किसी भी कंपनी को घाटा नही बल्कि मुनाफा हुआ..देखिये एक विश्लेषण....   
 वर्ष 2007
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IOC को 7525 करोड़ रुपये मुनाफा
HPCL को 406 करोड़ रुपये का मुनाफा
BPCL को 129 करोड़ रुपये का मुनाफा
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वर्ष 2008
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IOC को 6963 करोड़ रुपये मुनाफा
HPCL को 1268 करोड़ रुपए का मुनाफा
BPCL को 1806 करोड़ रुपये का मुनाफा
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वर्ष 2009
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IOC को 2950 करोड़ रुपये का मुनाफा
HPCL को 726 करोड़ रुपए का मुनाफा
BPCL को 1581 करोड़ रुपये का मुनाफा
 वर्ष 2010
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IOC को 10221 करोड़ रुपये का मुनाफा
HPCL को 575 करोड़ रुपये का मुनाफा
BPCL को 736 करोड़ रुपये का मुनाफा
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 वर्ष 2011
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IOC को 7445 करोड़ रुपये का मुनाफा
HPCL को 1539 करोड़ रुपये का मुनाफा
BPCL को 1547 करोड़ रुपये का मुनाफा हुआ........
अब बताइये ,इसके बावजूद भी प्रत्येक इंधन का रेट बढ़ा दिया गया ....और कहा जा रहा हैं कि हम
महंगाई से आम आदमी को राहत देने के लिये हर संभव उपाय कर रहे हैं.. तो सवाल यो उठता हैं कि आम आदमी के लिये तमाम सारे उपाय किये जा रहे हैं...पर 80 प्रतिशत गरीबो के लिये क्या किया जा रहा हैं ???
              आम आदमी के लिये हर प्रकार से राहत देने के लिये प्रयास किये जा रहे हैं? ....और गरीबो को मिटाने का प्रयास किया जा रहा हैं ....हॉलाकि भारत में निचले स्तर पर इंसानो की एक और कैटगरी रहती जिसे किसान कहते हैं ...निचले स्तर पर इसलिये कि इनकी परवाह अब कोई नही करता तथाकथित संगठन हैं तो केवल राजनीतिक रोटी सेकने के लिये इनका इस्तेमाल करते हैं ...देश में किसानो कि हालत क्या हैं इस पर एक रिपोर्ट देखिये .......
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आकंडों के अनुसार पूरे भारत में 2009 के दौरान 17368 किसानों ने आत्महत्या की है.किसानों के हालात बुरे हुए हैं,
इस बात का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि किसानों की आत्महत्या की ये घटनाएँ, 2008 के मुकाबले 1172 ज़्यादा है. इससे पहले 2008 में 16196 किसानों ने आत्महत्या की थी। जिन राज्यों में किसानों की स्थिति सबसे ज़्यादा खराब है उनमें महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ सबसे आगे हैं....जबकि ये राज्य खनिज पदार्थों से भरपूर हैं और इन्ही राज्यों कि जमीनो से कमाकर देश कि तमाम कंपनियों के मालिक देश के सबसे धनी लोगो में गिने जाते हैं । किसानों की आत्महत्या की कुल घटनाओं में से 10765 यानी 62 प्रतिशत आत्महत्याएँ इन पाँच राज्यों में ही हुई है.इन पाँच राज्यों के अलावा सबसे बुरी ख़बर तमिलनाडु से है. वर्ष 2009 में यहाँ दोगुने किसानों ने आत्महत्या की. वर्ष 2008 में यहाँ 512 किसानों ने आत्महत्याएँ कीं जो वर्ष 2009 में 1060 पर जा पहुँची.पिछले दस वर्षों से किसान आत्महत्याओं के आंकड़ो में अव्वल रहने के लिए बदनाम महाराष्ट्र 2009 में भी सबसे आगे रहा, हालांकि यहाँ आत्महत्या की घटनाओं में कमी आई है.महाराष्ट्र में 2009 के दौरान 2872 किसानों ने आत्महत्या की जो कि 2008 के मुकाबले 930 कम है.इसके बाद कर्नाटक में सबसे ज़्यादा 2282 किसानों ने आत्महत्याएँ की. केन्द्र शासित प्रदेशों में पॉन्डिचेरी में सबसे ज्यादा 154 किसानों ने आत्महत्या की.पश्चिम बंगाल में 1054, राजस्थान में 851, उत्तर प्रदेश में 656, गुजरात में 588 और हरियाणा में 230 किसानों ने आत्महत्या की.राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आकंडों के अनुसार 1997 से 2009 तक भारत में दो लाख 16 हज़ार 500 किसान आत्महत्या कर चुके हैं.कुल 28 राज्यों में से 18 राज्यों में किसान आत्महत्याओं की संख्या में इज़ाफा हुआ। इन ऑकडो को देखते हुये इस देश की बाजारबादी अर्थव्यवस्था पर तरस आता हैं टप्पणि करने को। पर हमें एक पैमाना तो तय करना होगा ही आम आदमी जिसमे परिभाषित हो गरीब भी हो और किसान भी ....अभी तक जो कैलोरी और तथाकथित आय के पैमाने पर गरीबो को परिभाषित किया गया हैं उसका आधार 1975 के दशक में तौयार किया गया था । आज भारत के 80% को छोड़कर पूरा इंडिया आगे निकल चुका हैं तो जरुरत हैं ...की आम आदमी के लिये, गरीबो के लिये, किसानो के लिये, एक नयी परिभाषा गढ़ी जाये .....ताकि नये हिन्दुस्तान की पीढ़ी हर एक का परिभाषा जानकर वह खुद को अपने को उस कैटगरी में रखने की कोशिश कर सके.......ये इसलिये.. कि इस देश से आम आदमी...और गरीबी कभी जाने वाली नही हैं.। पर आज लिखते समय एक खबर मिली हैं कि चव्वनी की विदाई हो गयी हैं बेचारी चव्वनी अपने आप को नही समेट सकी लोगो के साथ ...शायद गरीब भी कभी इस देश से चले जाये य़ा इतिहास में सिमट जाये....डर लगता हैं।
( ऑकडे बीबीसी और इंडियान्यूज के बिजनेस एडिटर सुरेश मनचंदा से लिया गया हैं उनके प्रति मेरा आभार हैं )   
    

मेरी जीवन यात्रा: भीड़ तंत्र का न्याय

मेरी जीवन यात्रा: भीड़ तंत्र का न्याय: "भीड़ कई तरह की होती हैं, और उन सबका न्याय भी अलग होता हैं।लेकिन हम यहॉ बात उस भीड़ की करेंगें जिसका कोई भूतकालिक मुद्दा नहीं होता वह कुछ पल..."

रविवार, 26 जून 2011

भीड़ तंत्र का न्याय

भीड़ कई तरह की होती है, और उन सबका न्याय भी अलग होता है।लेकिन हम यहां बात उस भीड़ की करेंगे जिसका कोई भूतकालिक मुद्दा नहीं होता वह कुछ पल के लिये एकत्रित होती हैं।और उसके बाद वह तुरन्त अपना फैसला सुना कर रफ़ा हो जाती है। वह एक ऐसी भीड़ होती है, जिसको अपने किये का परिणाम भी पता नहीं होता ..उसे उस समय जो अच्छा लगता है वह फैसला सुना देती हैं और उस जगह से दफा हो जाती है..क्योंकि उस भीड़ की कोई जिम्मेदारी तय नहीं हो पाती है न ही वह अपनी कोई जिम्मेदारी तय करना चाहती हैं। हांलाकि तमाम भीडे़ सार्थक कामों के लिये भी एकत्रित होती है कई भीडे़ बस, भीड़ इक्कठा करने के लिये ही एकत्रित होती है। पर जिस भीड़ की हम बात कर रहे है उसमे न संवेदना होती हैं। न ही मानवता होती हैं, क्या इस तरह की भीड़ की भी हमें जरुरत हैं? यह प्रश्न विचारणीय हैं। गुडगांव के एक हादसे की बात करेंगे जहां पर न ही मानवता दिखी नही संवेदना दिखी। क्या एक सभ्य मानव समाज गुडगांव जैसे उस हादसे की उम्मीद कर सकता हैं जहॉ एक व्यक्ति को जिंदा जलाया जाए और भीड़ तमाशाबीन होकर देखती रहे। यहॉ बात केवल भीड़ के तमाशाबीन होकर देखने की नहीं हैं पर जो सबसे गम्भीर बात हैं , वह ये हैं की उस व्यक्ति को केवल इसलिये जला दिया गया की वह इंसान एक ग्राम प्रधान की मौत का जिम्मेदार था। उस व्यक्ति ने एक ग्राम प्रधान को किसी आपसी रंजीस के कारण मौत के घाट उतार दिया। मौके पर उपस्थित भीड़ उस व्यक्ति के असभ्य कामो के बदले जो इंसाफ किया वो उससे कही ज्यादा असभ्य असंवेदनशील और अमानवीय था। क्या उस भीड़ ने ये जानने की कोशिश की कि आखिर उस इंसान ने उस ग्राम प्रधान का कत्ल क्यों किया ,नही ,नही की जानने की कोशिश। पर क्या आज हमारे सभ्य मानवीय समाज को यह सवाल नहीं उठाना चाहीये की, कि क्या मौत के बदले मौत ही एक मात्र सजा होनी चाहिये। इस तरह की घटना कोई एक नहीं हैं बल्की हमारे समाज में ऐसी घटनाओ की एक लम्बी फेहरिस्त हैं। साल भर पहले ही मिर्चपुर में जो की हरियाणा में हैं एक ऐसी घटना हुयी जहॉ कुछ दबंग लोगो ने मिलकर निर्बल लोगो को जिंदा जलाया ही नहीं बल्कि उनके घरो में भी आग लगा दी। आये दिन ये भी सुनने में आता हैं की उँचे जाति के लोगो ने दलितो को निर्वस्त्र कर सिर मुडवा कर गदहे पर घुमाया । .पढ़ने लिखने में एक बार के लिये झिझक जरुर पैदा कर सकते हैं। आपके मन को उद्वेलित कर सकते हैं पर हकी़कत में ये हमारे समाज की सच्चाई हैं ,जिससे हम मुंह नही मोड़ सकते हैं। आखिर हमारा समाज इतना असंवेदनशील क्यों हो चुका हैं। क्या हम अपने स्वाभिमान के लिये ये सब करते हैं या बदले की भावना से ये हमारा अमानवीय कृत प्रेरित होता हैं पर जो भी हो एक मानवीय सभ्य समाज की निशानी ये तो कतई नही हो ,सकती। ऐसा नहीं हैं की भीड़ हमेशा ही गलत काम करती हैं, पर हमें ऐसी भीड़ भी नही चाहिये जो बिना सोचे समझे अपने फैसले देने को व्यकुल रहती हो । तहरीर चौक की भीड को हम एक आदर्श भीड़ कह सकते हैं । अन्ना हजारे की भीड़ को हम एक आदर्श भीड़ कह सकते हैं ..दरअसल होता क्या हैं कि पूर्वनियोजित और आदर्श उद्देश्य के साथ उपस्थित हुय़ी भीड़ का लक्ष्य भी आदर्श होता हैं । पर भीड के अन्दर वह ताकत होती हैं जो बडी से बडी बुराइओ को अव्यवस्थाओ को उखाड़ फेकत देती हैं । ड़ांडी यात्रा के लिये भीड़ एकत्रित होती है तो अंग्रजो का नमक कानून तोड़ देती हैं। रामलीला में जेपी की भीड जुटती है तो देश में आपातकाल लागू होता जा बदले में लोगो को उस समय की हिट बाँबी दिखाई जाती हैं । सभ्य हिन्दुस्तान की जनता अब ये उम्मीद करना चाहेगी की एक सशक्त और आधुनिक बनते भारत में अब भीड़ मिर्चपुर और गुडगांव में हुये अमानवीय कृत्य जैसे उद्देशयो के लिये न जुटे , ब्लकि अब भारत में भीड़ मिलजुलकर भारत को और आगे ले जाने के लिये जुटे।

मंगलवार, 21 जून 2011

इस सफर का हमसफर कौन....

आपको एक ऐसा सफर करना हो जिसमे आपको ये पता ही न हो की आपको कब किस तरह के मोड़ मिल जाये कब कहॉ आपको आपकी मंजिल मिल जाये ..या कब आपको रास्ते में ठोकर मिल जाये ....और आप गिर जाये जहाँ आपको कोई उठाने वाला तक न.हो देर तक घिघियाते रहे ..गिडगिडाते रहे ......कराहते रहे कोई पूछने वाला तक न हो   तो आप क्या करेंगे ...जनाब कुछ नहीं कर सकते...बस कराहते रह सकते हैं..हम गिडगिडाते रह जायेगें ...बहुत हो सके तो दो चार आंसू बहा लेगें अपनी बदकिस्मती पर...अरे दोस्त इससे ज्यादा... अपने बस की कुछ हैं भी तो नही .वाकई में अगर जिंदगी आपको इस तरह बितानी हो जहॉ पल पल आपको ये सोचना हो की ..अगले घंटे कुछ भी हो सकती  हैं... ऐसे हालात में बढ़ा मजा भी आता हैं...पर बढ़ा दर्द भी होता ...लेकिन दर्द पता हैं क्यों होता हैं..क्योकि हम दूसरो को देखते की यार वो.. तो ......
लेकिन ऐसे जिंदगी का मज़ा ही कुछ अलग होता हैं जो बहुत कम लोगो को  मिलता हैं.... पर जिसे मिलता उससे पूछना ये मज़ा ...क्या लाजवाब होता हैं....लिखते हुये मुझे ये यकीन हो रहा हैं..मेरे भी जिंदगी का फलसफा भी कुछ इसी तरह का हैं...हर एक दिन को गुजारने के बाद दुसरे दिन के लिये संर्घष शुरु हो जाता हैं...लेकिन एक बात देखिये की ये पिछले 6 सालो से लगातार चल रहा हैं ..कभी कभी तो बढ़ा बवंढर भी आ जाता हैं..लेकिन एक बात मेरे साथ रहा हैं की ...की अंतिम मोड़ पर कोइ न कोई न कोई ऐसा मिल जाता हैं जो मुझे गर्दिश में जाने बचा लेता हैं...पर वो ज्यादा दूर तक मेरे साथ नहीं चलता कुछ दूर चलने के बाद वह व्यक्ति मेरा साथ छोड़ देता हैं....आज से 6 साल पहले जब मैं दिल्ली आया तो कुछ लोगो ने साथ दिया ..सफर आगे बढ़ता गया कुछ और लोगो ने साथ दिया...स्कूल से ग्रेजुएशन कर लिया ..पर इस सफर के दौरान अधिकरतर लोगो ने जिसने मेरा साथ दिया उसका मेरे साथ कोई न कोई स्वार्थ जुड़ा था...पर उनके स्वार्थ के साथ मेरा भी काम पूरा होता गया ...उन मुश्किलो से निकले तो दूसरी  मुश्किले हमारा हमसफर बन....जाती थी जब जब परेशान हो जाते थे तो भरी दुपहरी में काँल सेंटर में नौकरी के निये निकल पड़ते थे ...एक बार नहीं कई बार ऐसा हुआ ..हर बार मुंह लटकाकर रुम पर चले आते थे..पता हैं क्यूं ..अंग्रेजी नहीं  आती  थी ..कहीं पर जाते थे तो कहता की तुम्हारी उम्र 18 नहीं हुयी हैं....पर कोई हमारी समस्याये सुनने को तैयार नहीं होता था.....कभी बच्चो को ट्यूशन पढा़ लिया करते थे लेकिन उससे रुम का रेंट तक नही  निकलता था....बीती कहानियाँ इतनी अच्छी हैं की एक फिल्मकार अपनी फिल्म पूरी कर सकता हैं....चलिये अब छोडि़ये उन बातो को  वर्तमान सफर की बात कर लेते हैं...आज से साल भर पहले जब ग्रेजुएशन पूरा हुआ तो विकल्प था.. कि  कॉल सेंटर में जॉब कर लेते हैं.. साथ ही साथ ओपन से  एम.ए कर लेगें..क्योकि पढ़ने के लिये वक्त था पर फीस जमा करने के लिये पैसे नही थे...मेरे दोस्तो ने काहा की जर्नलिज्म कर ले .बस जामिया में गया फार्म भर दिया ....मेहनत किया ..प्रवेश परीक्षा पास कर गया पर ..फीस था ..पूरे ..28000 हजार रुपये.जो 1995 से मेरे घर में कभी आया ही नहीं...पढ़ने का मूड बिल्कुल नहीं था ...हर बार की तरह अंतिम समय में एक हमसफर मिला..मेरे नाउम्मीदो पर एक उम्मीद लेकर आया और कहॉ कि नहीं तूझे जामिया में एडमिशन लेना होगा ..जितना भी फीस होगा मैं दूगां......
............................................................
और उसकी वजह से आज मैं कुछ शब्दो को लिखने काबिल हो बन सका हूं...

रविवार, 12 जून 2011

मेरी जीवन यात्रा: डीयू से देहरादून

मेरी जीवन यात्रा: डीयू से देहरादून: "उन दिनों खिलती थी हिमालय की गोद में वो फिज़ाये उड़ते थे बादल और पकड़ती थी हमारी बाहें चारो तरफ कलकलाते थे नीर और उन्हे देखती थी हमारी न..."

शुक्रवार, 10 जून 2011

डीयू से देहरादून

उन दिनों खिलती थी
हिमालय की गोद में वो फिज़ाये
उड़ते थे बादल
और पकड़ती थी हमारी बाहें
चारो तरफ कलकलाते थे नीर
और उन्हे देखती थी हमारी निगाहें
पर आज कहां आ गये हम......
कहां आ गये हम..................
......



जब कभी मैं कुछ पल अपनी जिंदगी को रोक देता हूं..और मुड़ कर पीछे देखता हूं..
तो मन में फिर वही पुरानी तस्वीरें उभर आती हैं..उँचे पहाड़ो से गिरते कोमल
नीर सौन्दर्य प्रकृति की गोद में बड़े-बड़े सुनहरे रंगबिरंगे झिलमिल पेड़-पौधे ,
गगन चुमते पहाड़ सूरज की रोशनी में चमचमाते खिलखिलाते पर्वत,
भुल-भुलैया जैसे घुमावदार रास्ते ...और उपर से शरारती ललचाते बादल पास आकर
फिर उड़ जाते ......मेरे जिंदगी के बीते लम्हे कुछ इस तरह से तस्वीर बनाते हैं
 दिल्ली विश्वविद्यालय में जब मैं पढ़ता था ..तो वे काँलेज के दिन कुछ इस तरह
कुछ इस तरह से हुआ करते थे  ...उत्तराखण्ड़ की वीदियों में हम दो  बार सैर करने 
 गये थे.. हम सारे दोस्त दिन के समय हिमालय कि उदभूत सौन्दर्य से परिपूर्ण वादियो  में
घूमते थे...और चादनी रात के समय नदियो के किनारे बैठकर खूब शोर मचाते थे..
चकराता में अपने होटल कि खिड़कियो से बादल को पकड़ते..थे..पर्वतो कि रानी मसूरी
में प्रतिदिन कैम्पटी फाल नहाने जाते थे...रात को होटल में तकियो से लड़ाई करते
थक जाते थे तो...होटल में खिड़कियो के शीशे तोड़ते...
यहाँ से मन भर गया तो ..सहस्त्रधारा चले गये .. सहस्त्रधारा हमारे आगमन को
तैयार था...वहीं सूरज छुपने को उतावला को तैयार....आसमान में लालिमा छायी थी ..
पहाड़ो कि आखों से खुशी के नीर बह रहे थे ...झरनों से नीरे नांरगी बन के पास आ
रहीं थी ....वास्तव में क्या अदभूत नाजारा था ....प्रकृति के इस कोमल सौन्दर्य को 
हमारी नज़र न लगे ...यही सोच कर हम यहाँ से तीन दिन बाद लैंसडांन चले गये ..
लैंसडांन की खूबसूरत वादियां और इसकी पहरे में लगे गढ़वाल राइफल के जवान
तैनात थे...आवारो कि तरह घूमने पर तो प्रतिबंध था ....पर हम सबने आशिको कि
तरह घूमने में कोइ कोर कसर नहीं छोड़ा....जी भर के मजे लिये...मन में आया तो
टिफिन टाँप गये ..उससे मन भरा तो गढ़वाल राइफल ...संतोषी माता मंदिर...और
गढ़वाल कि वादियो में लम्बे...सुन्दर पेड़ो के बीच कई दिन बीताये...यादे इतनी गहरी
थी कि अन्तिम दिन जब हम वहाँ से वापस आने को तैयार हुये सबकी आँखो में थे ..
प्रकृति को देखा नहीं गया ...और गढ़वाल में भी आसुओ के बारिश होने लगी....फिर
भी हम उन हसीन वादिओ को छोड़कर चले आये ...........
अब मेरे काँलेज के वे दिन खत्म हो गये..सभी दोस्त दूर हो गये..य़ादों में अब बस
तस्वारें ही बच गयी हैं .. जिन्हे कभी देखता हूं तो न मुस्कुरा पाता हूं न आंसू गिरा
पाता हूं....सोचता हू कि काश !  वे दिन फिर लौटकर आ जाते ...और हम सभी फिर
एक साथ मिलकर हिमालय कि सौन्दर्य के साथ अठगेलिया उड़ाते........


रविचन्द ...

डीयू से देहरादून

उन दिनों खिलती थी
हिमालय की गोद में वो फिज़ाये
उड़ते थे बादल
और पकड़ती थी हमारी बाहें
चारो तरफ कलकलाते थे नीर
और उन्हे देखती थी हमारी निगाहें
पर आज कहां आ गये हम......
कहां आ गये हम........................


जब कभी मैं कुछ पल अपनी जिंदगी को रोक देता हूं..और मुड़ कर पीछे देखता हूं..
तो मन में फिर वही पुरानी तस्वीरें उभर आती हैं..उँचे पहाड़ो से गिरते कोमल
नीर सौन्दर्य प्रकृति की गोद में बड़े-बड़े सुनहरे रंगबिरंगे झिलमिल पेड़-पौधे ,
गगन चुमते पहाड़ सूरज की रोशनी में चमचमाते खिलखिलाते पर्वत,
भुल-भुलैया जैसे घुमावदार रास्ते ...और उपर से शरारती ललचाते बादल पास आकर
फिर उड़ जाते ......मेरे जिंदगी के बीते लम्हे कुछ इस तरह से तस्वीर बनाते हैं
 दिल्ली विश्वविद्यालय में जब मैं पढ़ता था ..तो वे काँलेज के दिन कुछ इस तरह
कुछ इस तरह से हुआ करते थे  ...उत्तराखण्ड़ की वीदियों में हम दो  बार सैर करने 
 गये थे.. हम सारे दोस्त दिन के समय हिमालय कि उदभूत सौन्दर्य से परिपूर्ण वादियो  में
घूमते थे...और चादनी रात के समय नदियो के किनारे बैठकर खूब शोर मचाते थे..
चकराता में अपने होटल कि खिड़कियो से बादल को पकड़ते..थे..पर्वतो कि रानी मसूरी
में प्रतिदिन कैम्पटी फाल नहाने जाते थे...रात को होटल में तकियो से लड़ाई करते
थक जाते थे तो...होटल में खिड़कियो के शीशे तोड़ते...
यहाँ से मन भर गया तो ..सहस्त्रधारा चले गये .. सहस्त्रधारा हमारे आगमन को
तैयार था...वहीं सूरज छुपने को उतावला को तैयार....आसमान में लालिमा छायी थी ..
पहाड़ो कि आखों से खुशी के नीर बह रहे थे ...झरनों से नीरे नांरगी बन के पास आ
रहीं थी ....वास्तव में क्या अदभूत नाजारा था ....प्रकृति के इस कोमल सौन्दर्य को 
हमारी नज़र न लगे ...यही सोच कर हम यहाँ से तीन दिन बाद लैंसडांन चले गये ..
लैंसडांन की खूबसूरत वादियां और इसकी पहरे में लगे गढ़वाल राइफल के जवान
तैनात थे...आवारो कि तरह घूमने पर तो प्रतिबंध था ....पर हम सबने आशिको कि
तरह घूमने में कोइ कोर कसर नहीं छोड़ा....जी भर के मजे लिये...मन में आया तो
टिफिन टाँप गये ..उससे मन भरा तो गढ़वाल राइफल ...संतोषी माता मंदिर...और
गढ़वाल कि वादियो में लम्बे...सुन्दर पेड़ो के बीच कई दिन बीताये...यादे इतनी गहरी
थी कि अन्तिम दिन जब हम वहाँ से वापस आने को तैयार हुये सबकी आँखो में थे ..
प्रकृति को देखा नहीं गया ...और गढ़वाल में भी आसुओ के बारिश होने लगी....फिर
भी हम उन हसीन वादिओ को छोड़कर चले आये ...........
अब मेरे काँलेज के वे दिन खत्म हो गये..सभी दोस्त दूर हो गये..य़ादों में अब बस
तस्वारें ही बच गयी हैं .. जिन्हे कभी देखता हूं तो न मुस्कुरा पाता हूं न आंसू गिरा
पाता हूं....सोचता हू कि काश !  वे दिन फिर लौटकर आ जाते ...और हम सभी फिर
एक साथ मिलकर हिमालय कि सौन्दर्य के साथ अठगेलिया उड़ाते........


रविचन्द ...

वर्तमान मीडिया का जंतर-मंतर

एक 75 साल के बुढ्ढे कि एक आवाज पर जंतर मंतर पर वो हुजूम उमड़ा
जो केवल जेपी के समय रामलीला मैदान में उमडा था ..जेपी कि तुलना अण्णा से नहीं की जा सकती पर दोनों के विचारो और समय के बारे में एक बार सोचना हमारा फर्ज़ जरुर बनता हैं.. ताकि 40 सालो के दैरान गुजरी एक पीढ़ी  हुयी समाज में हुये तमाम बदालवो की गहराईयो के जान सके....जहाँ तक मेरे विचार में समाज के अन्दर जो सबसे बड़ बदलाव हुआ वो इलेक्ट्राँनिक मीडिया का आगमन था ...जिसे आज भी कई लोग बुद्दु बक्सा कहते हैं ...वाक्ई में मैने कभी सोचा नहीं था कि एक बक्सा मेरे घर में आयेगा और मुझे ये बताने में इतना सक्षम होगा की जंतर मंतर पर जाना हैं ....और रामदेव को वही काम करते हुये मुझे गाली देना हैं ...कैमरे कि भीड़ ने कभी  कभी जंतर मंतर की तुलना जैसमीन आन्दोलन से जरुर कर दिया ...पर मुझे इतना सोचने पर जरुर विवस कर  आखिर ऐसा  क्या  हैं कि  बाजारवाद की दौड़ में  घर की बेडरुम या आपिस में बैठने  की बजाऐ इंसान धूप में धक्के खा रहा हैं ....दरअसल इंसान को वहाँ तक ले जाने वाला वो मीडिया था जो उसी इंसान को ये बतात हैं कि अगर आप नोकिया का फोन ऱखते हैं तो आप इंसान हैं अन्यथा आप कुत्ता हैं ....खैर इसे छोडि़ये बात मुद्दे कि करते हैं ..ताकत मीडिया कि  देखते हैं ...एक दिन अण्णा ने कहा दूसरे दिन 20000 हजार से ज्यादा लोग राजघाट पहुज गये ..कहने वाले कह सकते हैं की लोग भ्रट्राचार से परेशान हैं ..लोग सरकार से नाराज हैं वैगरह वैगेरह .....पर यकिन मानिये इसके पीछे एक बड़ी ताकत जो थी... वो उस कैमरे कि थी ...जिसे हम इलेक्ट्रनिक मीडिया कहते हैं
इसी मिसा ने संसद के एक पूरे सत्र को चलने नहीं देने पर मजबूर कर दिया..पाक साफ समझी जाने वाली सेना को नापाक कर दिया ...पर कइयो को बिना मतलब बरबाद भी कर दिया ....वैसे मुझे  भी नही पता था कि मीडिया अपनी ताकत दिखाती कैसे है पर आजकल इतने लाइव कवरेज होते हैं कि भी ये फ़र्क समझने लगा हू..रामदेव को ले लीजिये किसी कैमरो उसे बाबा बनाया तो किसी ने काँर्पोरेट बाबा बनाया किसी उसे अनशन करी बताया तो किसी उसे धनशन कारी बनाया ....किसी कैमरे ने उसे सत्याग्रही बताया तो किसी उसे सरकार से सीनाजोरी बताया...वाकई ताकत तो हैं मीडियी के अन्दर.... दो दिन में रामदेव को गाँधी बताती हैं तो अगले ही दिन उसे पूरा नंगा कर बाबा के रुप में एक छुपा हुआ उद्योगपति का चेहरा भी दिखाती हैं ...    

मीडिया की ताकत

एक 75 साल के बुढ्ढे कि एक आवाज पर जंतर मंतर पर वो हुजूम उमड़ा
जो केवल जेपी के समय रामलीला मैदान में उमडा था ..जेपी कि तुलना अण्णा से नहीं की जा सकती पर दोनों के विचारो और समय के बारे में एक बार सोचना हमारा फर्ज़ जरुर बनता हैं.. ताकि 40 सालो के दैरान गुजरी एक पीढ़ी  हुयी समाज में हुये तमाम बदालवो की गहराईयो के जान सके....जहाँ तक मेरे विचार में समाज के अन्दर जो सबसे बड़ बदलाव हुआ वो इलेक्ट्राँनिक मीडिया का आगमन था ...जिसे आज भी कई लोग बुद्दु बक्सा कहते हैं ...वाक्ई में मैने कभी सोचा नहीं था कि एक बक्सा मेरे घर में आयेगा और मुझे ये बताने में इतना सक्षम होगा की जंतर मंतर पर जाना हैं ....और रामदेव को वही काम करते हुये मुझे गाली देना हैं ...कैमरे कि भीड़ ने कभी  कभी जंतर मंतर की तुलना जैसमीन आन्दोलन से जरुर कर दिया ...पर मुझे इतना सोचने पर जरुर विवस कर  आखिर ऐसा  क्या  हैं कि  बाजारवाद की दौड़ में   घर की बेडरुम या आपिस में बैठने   की बजाऐ इंसान धूप में धक्के खा रहा हैं ....दरअसल इंसान को वहाँ तक ले जाने वाला वो मीडिया था जो उसी इंसान को ये बतात हैं कि अगर आप नोकिया का फोन ऱखते हैं तो आप इंसान हैं अन्यथा आप कुत्ता हैं ....खैर इसे छोडि़ये बात मुद्दे कि करते हैं ..ताकत मीडिया कि  देखते हैं ...एक दिन अण्णा ने कहा दूसरे दिन 20000 हजार से ज्यादा लोग राजघाट पहुज गये ..कहने वाले कह सकते हैं की लोग भ्रट्राचार से परेशान हैं ..लोग सरकार सो नाराज हैं वैगरह वैगेरह .....पर यकिन मानिये इसके पीछे एक बड़ी ताकत जो थी... वो उस कैमरे कि थी ...जिसे हम इलेक्ट्रनिक मीडिया कहते हैं ...