गुरुवार, 9 फ़रवरी 2012

खेती..ना बाबा ना..


इंसान का पलायन चाहे जिस वज़ह से हो हमेशा दुखद होता है … आदमी कभी बेहतरी के लिए पलायन करता है तो कभी दुखी होकर पलायन कर जाता है । दरअसल प्रवास इंसानी ज़िन्दगी का एक हिस्सा सा बन गया है । भारत ..जिस देश की 70 प्रतिशत से अधिक की आबादी खेती से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से जुड़ी हुई है ..उस देश में पिछले कुछ सालों से लाखों किसान खेती को छोड़ चुके है..देश में साल दर साल किसानों की आत्महात्या की आकड़ो में बढ़ोत्तरी होती जा रही है । लेकिन सरकार GDP के आकड़े के सहारे यह दावा करती है कि देश में विकास हो रहा है...वहीं योजना आयोग सुप्रीम कोर्ट में यह दलील देता है कि 32 रुपये कमाने वाले ग़रीबी रेखा से उपर है ।



देश में किसानों कि हालत कितना दयनीय है इसका खुलासा साल 2001 कि जनगणना से पता चलता है ...वर्ष 1991 और 2001 के बीच 70 लाख से अधिक किसानों ने जिनका मुख्यपेशा किसानी था.. ने खेती करना छोड़ दिया ...वहीं राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आकंडों की मानें तो देश में 1997 से 2009 तक दो लाख 16 हज़ार 500 किसानों ने मौत को गले लगा लिया ... इससे ये अनुमान लगा सकते है..जहां देश में प्रतिदिन लगभग 2000 किसान खेती छोड़ रहे है वही सैकड़ो किसान आत्महत्या करने पर मज़बूर हो रहे है...लेकिन बड़ा सवाल ये है कि आखिर ये दो हज़ार किसान खेती छोड़कर जाते कहां है .इसका जबाव न सरकार के पास है न ही देश के रोज़गार के आकड़े में मिलता है …