बुधवार, 14 नवंबर 2012

क्यों उजाला करूं...

इस छोटे से रास्ते में अंधेरा कर दिया मैंने कई जगह कभी बेवजह कभी स्वाभिमान से कभी अपनी जरूरतों के लिए सोचता हूं, आज क्यों न उजाला कर दूं पर क्यों करूं अंधेरा ग़लत तो नहीं है मेरी आत्मा कहती है मुझसे। मेरा स्वाभिमान आड़े आता है रोड़ा बन जाता है, हर उस सफ़र में जिसे मैंने पीछे छोड़ दिया मै ख़ुद को कहता हूं, पीछे क्यों बढ़ना तो मुझे आगे है चाहे कुछ हो जाए, पर मेरा स्वाभिमान न डगमगाए मैं इससे हर वक्त डरता हूं पर अपने कर्तव्य पथ पर हर वक़्त अडिग रहता हूं। रविचंद

मंगलवार, 13 नवंबर 2012

ट्रेनों के जनरल डिब्बों में वेंडरों और पुलिस की अराजकता

दिल्ली के आनंद विहार टर्मिनल से बिहार सप्त क्रांति सुपर फास्ट दोपहर के 2.55 मिनट पर प्लेट फॉर्म नंबर एक से बिहार के मुजफ्फरपुर के लिए रवाना हो गई। मुझे उस दिन (31 अक्टूबर को ) अचनाक अपने घर गोरखपुर निकला था, सो मैं जनरल का टिकट लेकर ट्रेन के सबसे पीछे लगे जनरल डिब्बे के दूसरी बोगी मैं बैठ गया। हर बोगी में एक सीट रेलवे के रसोईयों ( कटैगरिंग सुविधा- 'खाने पीने सुविधा' उपलब्ध कराने वालों के लिए आरक्षित होता है)। अपने करीब 13 घंटे के यात्रा के दौरान मैंने भ्रष्टाचार, दलाली, और अराजकता के कुछ ऐसे दृश्य देखें उन दृश्यों का शब्दों में वर्णन है ये लेख। ट्रेन के जनरल बोगी में अपने निर्धारित सीट पर खान-पान का डिब्बा रखते ही लक्ष्मी शाह और उसका साथी कहते है ये आगे पीछे का तीन सीट खाली कर दों। तुरंत खाली करों, नहीं तो सबकों सौ-सौं रुपए देने होंगे। और साथ में खाना-पीना भी होगा। थोड़ी देर में उसने अपने आगे-पीछे की तीन सीटे तीन लोगों को सौ-सौ रुपए में बेच दी। जबकि उनके पास टिकट भी था। एक आदमी जिसके पास टिकट नहीं था और उसे मुजफ्फरपुर जाना था, उसे उसने 500 सौ रुपए में सीट बेचीं। मिलीभगत का कमाल देखिए सप्त क्रांति मुरादाबाद से होकर लखनऊ जाती है, आनंद बिहार टर्मिनल से प्रस्थान करने के बाद मुरादाबाद के करीब टीटी उस बोगी में टिकट चेक करने आए। उस समय वेंडर भी वहीं पर बैठा था। वेंडर के सीट के पास दो लोग मुजफ्फरपुर जाने के लिए बैठे थे, जिनमें से केवल एक के पास ही टिकट था। टीटी ने दोनों से पूछा कहां जाओंगे ,टिकट दिखाओं उन यात्रियों के बोलने से पहले ही वेंडर बोला, एक मुरादाबाद जाएगा (जिसके पास टिकट नहीं था, और दूसरा मुजफ्फरपुर जाएगा)। फिर टीटी पूछा इसका टिकट ,,,अरे सर स्टाफ है। टीटी चला गया। थोड़ी देर बाद टीटी थोड़ी देर बाद ट्रेन में सामान बेचने वाले को हमारी बोगी में भेजा, और उससे कहा कि वेंडर से पानी लेकर आना, वो आदमी वेंडर से पानी लेकर गया। बिना पैसे के। अब वेंडर कहता है आप लोग देखिए हमें भी यहां बहुत कुछ गवाना होता है, अगर मै आपसे इस सीट के बदले पैसे नहीं लूंगा तो इनकों पानी कहां से मुफ्त में पिलाऊंगा, अभी तो ये शुरूआत है मुजफ्फपुर तक कई बोतल पानी और खाना मुफ्त में ये लोग खाते है, कहां से लाऊंगा इतना माल। इसीलिए इन सीटों पर हम लोगों को बिठा कर पैसे लेते है। रात के 9 बजे ट्रेन के प्रस्थान करने के बाद ही वेंडरों ने शराब पीना शुरू कर दिया। करीब तीन बोतल शराब पीने के बाद वो चिल्ला चिल्लाकर कह रहा था मेरे बोगी में जितने लोग बैठ है.. ध्यान से सुन लिजीए.. सबकों खाना खाना होगा। अपने सामने वाले सीट पर बैठे यात्री से वेंडर कहता है, देखिए मेरा तो वसूल है, मेरे बोगी में जो बैठता है उसे खाना खाना ही पड़ता है। और देखिए, इधर तो हम खाना खिलाने का ही पैसा लेते है, लेकिन जब बिहार से ये ट्रेन लौटती है, तो सबसे 100-100 रुपए जबरदस्ती लेते है, और तभी अपनी बोगी में बैठने देते है। ये सभी बाते वेंडर खुद कह रहा था। शराब का नसा चढ़ने के बाद वेंडर का होश खो गया, लखनऊ स्टेशन आने के पहले करीब 8 बजकर 50 मिनट पर वो उठा, और कहा हां भईया खाने के लिए तैयार हो जाइए। अब वो अपने हाथ में खाना लेकर सबको जबरन देने लगा, ठीक उसके ही रो में मैं उपर की सीट पर बैठा था। नीचे के सभी लोगों को जबरन खाना देने के बाद उपर खाने का प्लेट बढ़ाया। सबसे पहले उसने मुझे दिया, मैंने उसका खाना खाने से मना कर दिया। मैने वेंडर से कहा मैं अपने घर से खाना लेकर आया हूं, मुझे खाना नहीं चाहिए। उसने कहा नहीं खाना खाना हीं पड़ेगा, मैंने वेंडर से कहा मुझे नहीं खाना जबरन खिलाओगे क्या? फिर उसने मेरे कान में कहा बाबूजी ये खाने का प्लेट रख लीजिए आप नहीं लेंगे तो कोई भी नहीं लेगा क्योंकि मैने उपर खाना देने की शुरूआत आपसे ही की है। फिर मैने उससे कहा नहीं चाहिए मुझे खाना, और सब लेंगे या नहीं लेंगे इसकी जिम्मेदारी मेरी है क्या, जिसे खाना होगा वो खाएगा, जिसे नहीं खाना होगा वो नहीं खाएगा, तुम जबरन खाना तो नहीं खिला सकते न, मैंने वेंडर से कहा। फिर वो कहता है बाबूजी आप मेरे पेट पर लात मार रहे है, मैंने कहा ऐ कैसी बात कर रहे हो, इसमें लात मारने की क्या बात है, नौकरी करते हो, जितना बिकेगा उतना बेचों। नहीं बिकेगा वापस कर देना। ( दरअसल उन्हे पर डिब्बा बेचने पर कमीशन मिलता है जिससे वो लोगों को जबरन खाना खिलाकर उल्टा सीधा पैसा लेते है)। मैने जब डिब्बा लेने से इनकार कर दिया तो उसने मेरे बगल में बैठे बुजुर्ग आदमी को डिब्बा पकड़ाया, उसने कहा मुझे नहीं खाना मेरे पास खाना है, वेंडर ने उससे कहा क्यों नहीं खाएगा, चल पकड़ ये डिब्बा, नहीं तो भाग जा इस बोगी से, मेरे कहे मुताबिक उस बुजुर्ग व्यक्ति ने हिम्मत बांधा और वेंडर का खाना खाने से इनकार कर दिया। फिर एक के बाद एक आठ लोगों ने जो मेरे साथ उपर की सीट पर बैठे थे। खाना खाने से इनकार दिए। अब वेंडर आगबबूला होकर मेरे से कहता है ये आपने अच्छा नहीं किया...आपके कारण इन लोगों ने खाना नहीं लिया। आपकों देख लूंगा मैं। इतना कहकर वेंडर दूसरी सीट पर चला गया। जबरदस्ती की हद पूरे बोगी में उसने हमारी सीट को छोड़कर सभी को जबरन खाना खिलाया। कई बुजुर्ग व्यक्ति को जो खाना लेने से मना कर रहे थे, उनको थप्पड़ मारकर जबरन खाना दिया। और पैसे उसूल किया। लखनऊ स्टेशन पर रिश्वत की मिलीभगत लखनऊ स्टेशन पर ट्रेन करीब 20 मिनट रूकती है। ट्रेन रूकने पर मैं थोड़ी देर के लिए ट्रेन से नीचे उतर गया। और यहां पर जो दृश्य देखा वो दंग कर देने वाला था। दरअसल यहां से वेंडर अपना खाना बेचकर अपने कैंटिन वाली बोगी में सोने चले जाते है। मै अपने बोगी से नीचे उतकर थोड़ी दूर पर ही खड़ा था। तभी देखा की दो पुलिस वाले ( हृद्य नारायण दुबे 'वर्दी पर एक स्टार लगा हुआ', और दूसरा उनके साथ बृजलाल नाम का पुलिस वाला था) हमारे बोगी में झांक रहे थे, तभी वेंडर दौड़ कर उन पुलिस वालो के पास आया । और पुलिस उन पुलिस वाले से कहता है, सर जी नमस्कार, इसी बोगी में जाना है क्या, पुलिस वाले ने कहा कि नहीं इसमें नहीं जाना बता क्या बात है। वेंडर बोला अरे सर एक अपना ही भाई बैठा है उसके पास टिकट नहीं है... थोड़ा देख लीजिएगा। हृद्य नारायण दुबे अपने दूसरे पुलिस साथी से कह रहा है कि ..अरे ये लोग चार पांच लोगों को पैस लेकर सीट पर बिठाते है। अरे बहुत कमाते है ये लोग। फिर वेंडर पुलिस वालों से कहता है अरे माई-बाप कहां ..आज तो देख रहे है.. पूरी बोगी ही खाली है। खाना भी नहीं बिका, क्या बताऊं काफी दिनों बाद आज बहुत बुरा हाल है। पुलिस वाला कहता है अरे...साले तुम लोग बहुत चालबाज आदमी हो। इसके बाद वेंडर पुलिस वालो से थोड़ी दूर जाकर अपने जेब से एक सौ रूपए का नोट निकालता है, और उनके पास आकर बृजलाल नाम के पुलिस वाले के जेब वो सौ का नोट रख देता है। और उनसे कहता है सर थोड़ा देख लीजिएगा उसे कोई दिक्कत न हो। फिर पुलिस वाला कहता है अरे हम तुमसे कुछ कह रहे है, जाओं निश्चिंत रहो।

शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2012

सम्मेलनों में फंसा जैव विविधता संरक्षण

हम जैव विविधता संरक्षण के लिए 60 मिलियन डॉलर देने की घोषणा करते है, हमें ये बताते हुए खुशी है कि हमारी सरकार ने जैव विविधता को बचाने के लिए कई सारे उपाय किए है...जिसमें मनरेगा जैसी योजनाएं प्रमुख है...भारत के प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह ने ये बातें अक्टूबर 2012 में हैदराबाद में आयोजित विश्व जैवविविधता सम्मेलन में कही थीं । दुर्भाग्य से बायोडायवर्सिटी में सबसे ज्यादा संपन्न हमारे देश में तमाम नृजातीय प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर है। इसे आप आधुनिकता की हवस कहे या प्रकृति की मार, जिस समय हैदराबाद में विश्व समुदाय जैव विविधता को बचाने की खातिर माथापच्ची कर रहा था, उसी समय असम के काजीरंगा नेशनल पार्क में कई गैंडे और पशु-पक्षी प्राकृतिक आपदा के साथ-साथ शिकारियों के शिकार हो गए। इसे विडंबना कहे या परंपरा.... भारत की पर्यावरण मंत्री जयंती नटराजन ने काजीरंगा में आए प्राकृतिक आपदा से निपटने के लिए सिर्फ एक करोड़ रुपए देकर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ली....बिना किसी दूरदर्शी नीति और योजना के इसी तरह सरकार करोड़ों रूपए लुटा देती है..... लेकिन ये कोशिश जैव विविधता को बचाने के लिए नाकाफी साबित हो रही है...... हैदराबाद में जैवविविधता सम्मेलन एक ऐसे समय आयोजित किया गया , जब दुनियाभर की जैविक प्रजातियों के अस्तित्व पर संकट मंडरा रहा है....लेकिन इस बाजारू दुनिया का प्रकृति के प्रति नजरिया देखिए.... यहां भी कार्पोरेट जगत की तरह केवल पैसे जुटाने की चर्चा हुई...जिसे तमाम गैर सरकारी संगठन, औऱ दुनियाभर की सरकारों के रहनुमा मिलकर लूट सकें। आधुनिकीकरण की शुरूआत से ही इंसानों ने प्रकृति के उपर बहुत जुर्म ढाए हैं.....और धीरे धीरे करके आज जब हालात बेकाबू हो चुके हैं तो फिर उसे बचाने के लिए दुनियाभर के पर्यावरणविद और सामाजिक संगठन सम्मेंलनों की रस्म अदायगी करके अपनी चिंता जाहिर कर रहे हैं...अगर इस संकट पर नजर डालें तो...धरती से खत्म हो रही प्रजातियों में 41 फीसदी उभयचर, 33 फीसदी प्रवाल, 25 फीसदी स्तनपायी, 13 फीसदी पक्षी और 23 फीसदी कोनफर वृक्ष हैं....बात अगर भारत के परिप्रेक्ष्य में करें तो, यहां की कुल आबादी लगभग एक अरब बीस करोड़ है, ...जो कि विश्व जनसंख्या का लगभग 18 फ़ीसदी है... इस देश में इंसान और वन्य-जन जीवन के लिए विश्व भूमि का 2.4 हिस्सा ही उपलब्ध है... इस स्थिति में दोनों के बीच संघर्ष होना लाजिमी ही है... और ज़ाहिर है कि इस लड़ाई में कहीं ना कहीं तात्कालिक जीत इंसानों को ही मिल रही है....हालांकि ये भी उतना ही सही है कि इसके बिना लंबे समय तक इंसानी जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती...पिछले दशक में भारत ने कम से कम पांच दुर्लभ जानवर लुप्त होते देखे हैं... इनमें इंडियन चीता, छोटे क़द का गैंडा, गुलाबी सिर वाली बत्तख़, जंगली उल्लू और हिमालयन बटेर शामिल है.. हालांकि देखा जाए तो भारत ने अपने जैव विविधता को बचाने के लिए कोशिश जरूर की है...सरकार ने देश का लगभग 5 फिसदी भौगोलिक हिस्से को सुरक्षित क्षेत्र में रखा है...बाघों की विलुप्ति होती संख्या पर तमाम समाजिक संगठन और पर्यावरणविद् जब सामने आए , तब सरकार ने कई योजनाओं के साथ लोगों में जागरुकता भी लाया...परिणामस्वरूप जहां 2006 में सिर्फ़ 1411 बांघ थे, वहीं 2011 में देश भर में 1706 वयस्क बाघ गिने गए थे।...पर्यावरण मंत्रालय के अनुसार भारत इस समय जैव विविधता पर दो अरब डॉलर ख़र्च कर रहा है...परंतु ये तमाम योजनाएं बिना किसी दूरदर्शी नीति के खोखली साबित हो रही है... विश्व समुदाय की तमाम कोशिशों के बावजूद इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंज़र्वेशन ऑफ़ नेचर ने चेताया है कि इस समय करीब 1 हजार दुर्लभ प्रजातियां ख़तरे में हैं... जबकि 2004 में यह संख्या केवल 650 थी...विश्व धरोहर को गंवाने वाले देशों की शर्मनाक सूची में भारत चीन से ठीक बाद सातवें स्थान पर है...जानकारियों के मुताबिक, 5,490 स्तनधारी प्रजातियों में से हर पांचवीं प्रजाति लगभग विलुप्त होने के कगार पर हैं। जाहिर है, हमारी कोशिशों में चूक हो रही है। ...और अगर जल्द ही कड़े कदम नहीं उठाये गये तो इसके गंभीर परिणाम देखने को मिलेंगे

गुरुवार, 25 अक्तूबर 2012

हिम्मत

पंकज की तबीयत रात से बहुत ख़राब है। देर रात काम करके आया था। सुबह सोकर जल्दी उठा। कुछ देर तक सोचता रहा की डॉक्टर के पास जाऊं या ड्यूटी पर जाऊं। काफी देर तक सोचने के बाद वो निर्णय लिया की डॉक्टर के पास जाऊंगा। पंकज अपने कमरे से निकला, गली की सीध वाले रास्ते के सामने ही मेन सड़क थी। रोड पारकर हल्की सी सांस लेते हुए वो बस स्टैंड पर बैठ गया। अस्पताल जा रहूं कहीं ज्यादा तबीयत न खराब हो जाए, बड़ी बीमारी निकल गई तो क्या करूंगा। घर में दो छोटे बच्चें है। बस स्टैंड पर बैठकर पंकज ये तमाम बाते अपने मन में सोचने लगा। तभी बस आई वो बैठ गया। अस्पताल पहुंचने के बाद उसने डॉक्टर से चेकअप करवाया। पंकज अभी फिलहाल ये दवाएं ले लो, तुम कल फिर आ जाना, डॉक्टर ने पंकज से कहा। अस्पताल से निकले के बाद दोपहर के दो बज गए थे। पंकज बिना कुछ खाएं पिए अपने फैक्ट्री लेदर की फैक्ट्री में वो काम करता था। दवाएं खाने के बाद उसकी तबीयत थोड़ी ठीक थी। उसने फिर रात के दो बजे तक काम किया और अपने कमरे पर आ गया। सुबह उसे जल्दी उठना था। और अस्पताल जाना था। लेकिन रिपोर्ट की चिंताओं ने रात भर उसके नींद में खलल डाला। सोचते-सोचते सुबह हो गया। पंकज फिर तैयार होकर अस्पताल चला गया। मरीजों की लाइन में उसका नंबर चौथा था। कुछ देर बाद डॉक्टर ने पंकज को बुलाया। अंदर से डरा सहमा पंकज डॉक्टर के केबिन में जाकर खड़ा था। अरे बैठ जाओ इतने डरे क्यों हो, डॉक्टर ने पंकज से कहा। पंकज बैठ गया। डॉक्टर ने पंकज से पूछा क्या काम करते हो, पंकज ने कहा ललल लेदर की फैक्ट्री में काम करता हूं। क्या बहुत ज्यादा काम करना पड़ता है। अबकि बार पंकज डर गया। कुछ नहीं बोला। ....फिर डॉक्टर ने कहा पंकज तुम्हे ब्लड कैंसर हो गया है। थैलेसिमीयां। काटों तो खून नहीं ऐसी हालत हो गई पंकज की। उसे अपेन उपर विश्वास नहीं हुआ उसने फिर डॉक्टर से पूछा, सर मुझे क्या हो गया है। पंकज तुम्हे ब्लड कैंसर हो गया है, डॉक्टर ने पंकज कि ओर देखते हुए कहा। पंकज की ऑखों में आसू थे। उसने डॉक्टर कहा कि सर अब क्या कर सकता हूं। नाउम्मीद भरी सांत्वना देते हुए डॉक्टर ने पंकज से कहा चिंता मत करों इलाज होगा ठीक हो जाएगा। एक तरह से डॉक्टर की उस कुर्सी पर बैठे-बैठे पंकज बेहोश सा हो गया था। उसे सूझ नहीं रहा था कि वो करे तो क्या करे। दिवाल के सहारे एक अब एक नई जिंदगी जीने को सोचते हुए वो खड़ा हुआ। पंकज तुम चिंता करों कुछ पैसे लगेंगे भर्ती हो जाओं इलाज होगा ठीक हो जाओगे। डॉक्टर पंकज तो इस तरह से सांत्वना दे रहे थे, जैसे कोई मुरझाएं फूल को कह रहा हो कि तुम फिर जेठ की लिली की तरह खिल उठोगे। पंकज ठहरा एक मज़दूर आदमी उसको अभी महीने की तनख्वाह भी नहीं मिली थी। दूसरे वो दिल्ली के गोविंदपुरी में एक किराए की मकान में रहता था। बेचारे के पास अस्पताल में भर्ती होने के लिए पैसा नहीं था। वो अस्पताल से घर से चला आया। दूसरा कोई उपाय भी नहीं था उसके पास, हमारे देश में जो पहले पैसा दो फिर इलाज लो का संद्धांत है। क्योंकि उसकी पर्ची पहले कटनी थी। फिर जाकर वो कही अस्पताल में भर्ती हो पाता। सूरज ढल रहा था, शाम के करीब साढे छह बज रहे थे। छत पर बैठे बैठे वो तमाम सारी बाते सोचने लगा। इलाज कहां से होगा इस बारे में नहीं , बल्कि इस बारे में कि उसे दो बच्चे है, पत्नि है, दोनों बच्चे अभी छोटे है, बड़ा वाला करीब आठ साल का है, और दूसरा करीब पांच साल का। उसका पूरा परिवार गावं में रहता है और दिल्ली शहर में अकेला। मै नहीं रहा तो मेरे भाई ज़मीन हड़प लेगे, बीवी बच्चे कहां रहेंगे। पंकज ये तमाम सारी बात सोचने लगा। रात अंधेरा हो चुका था, सर्दी का महिना था। ओस गिरना शुरू हो गया था। अब वो छत से नीचे चला आया। काफी देर तक सोचना लगा क्या बना कर खाऊं, सुबह से पंकज कुछ खाया नहीं था, उसके कमरे में आटा और चावल तो था। लेकिन सब्जी नहीं थी, सब्जी के लिए बाजार जाना पड़ता। एक तो पहले से ही उसकी तबियत खराब, मन मारकर पंकज बाजार नहीं गया। स्टोव जलाया और तीन रोटी बनाई, थोड़ी देर बाद प्याज और नमक के साथ रोटी खा लिया। नींद तो आ नहीं रही थी। कैसे-कैसे बेचारा फर्श पर चद्दर बिछाकर लेट गया। रात भर सो नहीं पाया। कभी उठकर बैठ जाता, तो कभी फिर सो जाता था। रात भर यही करते करते सुबह हो गई। सुबह के नौ बज चुक है, उसे काम पर जाना है। लेकिन पंकज जब ये सुना है कि उसे कैंसर है, उसकी तबियत मानसिक रूप से पहले ज्यादा ख़राब हो गई है। अब वो हर वक्त काम करते हुए कराहता रहता है। घर में उसकी कोई बड़ी आमदनी नहीं है जिससे वो घर से पैसे मंगाकर अपना इलाज करवा सके। पंकज के तीन भाई है तीनों उसकी शादी के बाद से ही अलग रहते है । मतलब अब उसे अपने दोनों बच्चों और बीवी के साथ उसे अपने इलाज का भी खर्च उठाना है। कहानी जारी है...

गुरुवार, 11 अक्तूबर 2012

वो छत पर आई...और हम पास हो गए...


सुबह सो कर उठते ही इस बात का इंतजार रहता था कि कब तीन बजे। पत्रकारिता की प्रवेश परीक्षा के लिए तैयारी जो करनी थी। एक ही खटिया थी। तीन बजे के बाद सूरज थोड़ा पश्चिम हो जाता था।  दीवार के किनारे छांव हो जाती थी। कौन खटिया के पश्चिम में बैठेगा और कौन पूरब इस बात की लड़ाई उजाले से सूरज के ढलने तक होती थी। थोड़े से छांव में रखे खटिया पर अक्सर ब्लू क लर का चादर बिछा देते थे। दोनों दिशाओं में बैठने की हड़बोड़ में बिछे चादर का पता भी नहीं चलता था। पूरब की ओर मुंह करके बैठना फायदेमंद था। इसीलिए हर वक्त इसी की लड़ाई होती थी। एक बैट बॉल भी थी। उसमें भी झंझट ही था। अधिकतर हम आपस में क्रिकेट खेलते वक्त सोचते है कि सबसे ज्यादा बैंटिग मिले। लेकिन उस  समय हम दोनों को बॉलिग करना ज्यादा फायदेमंद था। क्योंकि देखना  पूरब ही था। हां बैट बड़ा अजीब था,  छत पर एक लकड़ी का पटरा था, उसे बैट बना लिया था। उसे छिपाना भी था तो दीवारों के किनारों ही खेलते थे कि दूसरे को  दिख न पाए कि हम पटरी से खेल रहे है।  मै या अभिमन्यु में इस बात की होड़ लगी रहती थी बॉल हम फेकेंगे हम फेकेंगे। इसीलिए पूरब की ओर मूह करके बॉ फेकना होता था, जहां वो डेली  पूरब में उस छत पर तीन बजे के बाद आ जाती थी,  बॉल फेंकते फेंकते दीवार के उस पार भी चली जाती थी, पर अफसोस नहीं रहता क्योंकि दो रूपए वाली बाल रहती थी। न ज्यादा उड़ती थी न ज्यादा कूदती थी। दो छतों को पार कर तीसरे छत पर वो पिछले एक महीने से डेली आ जाती थी। पता नहीं कैसा एक अनजाना सा मूक लगाव हो गया था उससे। कभी कभी आवाज भी केवल उसी छत से आ जाती थी। पर हमारे छत से 'बर्फी' जैसी प्रतिक्रिया ही होती थी। क्योंकि हम दोनों ठहरे फट्टू आदमी। दुनिया भर की समाचार पत्रों की कतरन काटकर इक्कठा कर लिए थे। पढ़ते एक नहीं अगर पढ़ने बैठ गए तो  उन कतरनों की लाइनों से इतना मतभेद की बहस में घंटा बीत जाता था।  पिछले करीब पंद्रह दिन से यही सिलसिला जारी था। दिन से सूरज के लालिमा तक पढ़ाई करके थक जाते थे। तो फिर एक दो किलोमीटर की सैर करके आ जाते थे। उसके बाद खाना बनाते और खाकर सो जाते । सोने के बाद भी अगले सूर्योदय के तीन बजे का  इंतजार रहता था।जामिया से पत्रकारिता की पढ़ाई करनी थी। शौक मित्र महोदय अभिमन्यु साहब ने लाई थी। हुजूर का फरमान था की करेंगे तो जर्नलिज्म ही करेंगे।  अब जामिया से पढ़ने के लिए एंट्रेंस एग्जाम पास करना तो जरूरी था न , तो महीने भर से पढ़ाई शुरू कर दी थी, उस समय बदरपुर में मै जिस मकान में रहता था उस घर में कोई था नहीं । मकान मालिक ठहरा अपना दोस्त। परवाह किसी बात की थी नहीं सिवाय बेइज्जती के । क्योंकी अगल बगल  सब जानने वाले थे। सब अपनी तो ठाठ थी। पूरब की ओर देखते देखते कब परीक्षा का डेट आ गया पता ही नही चला। कल परीक्षा थी आज हम फिर सुबह से तीन बजे का इंतजार कर रहे थे। तीन बजा फिर छत पर पढ़ने के लिए चले गए। कुछ देर तक पढ़े। संसद में महिला आरक्षण और मीडिया में जनगणना में जाति का नाम शामिल करने पर पर बड़ी गहमा गहमी थी।  पढ़ाई शुरू करते ही हमने इन मुद्दों पर बहस शुरू कर दी थी। अब जब बहस शुरू हो गया तो पढ़ाई कहां होनी थी। थोड़ी देर बहस में गहमा थी, फिर आ गए अपनी लाइन पर, जो वो...छत पर आ गई थी। बैट बॉल शुरू हो गई, खेलते खेलते सूरज ढल गया...और दूसरे दिन एग्जाम था। तीस जुलाई को रिज्लट आया और हम पास हो गए



 

रविवार, 7 अक्तूबर 2012

इंतजाम हो गया है...

सर नीचे लटकाए , कभी इधर उधर देखते आगे चले जा रहे है। मेन गेट से एंट्री करने के बाद थोड़ा दाएं मुड़े, फिर सीधे उस कमरे में चले गए। मैंन दूसरी बार और महेश पहली बार जामिया में परीक्षा देने गए थे। करीब दो घंटे का पेपर था। ज्योग्राफी का एमए का पेपर था। दिल्ली विश्वविद्यालय से भी ज्योग्राफी में ही बीए ऑनर्स किया था। वैसे परीक्षा तो दे दिए, पर दिल से कहे तो पढ़ने का मन था नहीं। इसलिए भी नहीं की प्रतिदिन अगले दिन के बारे में सोचना पड़ता था। अब ज्यादा पीछे की बात करना नहीं चाहता। परीक्षा खत्म होने के बाद मैं और मेरा दोस्त महेश, ऊर्दू विभाग के पीछे बने एक चबूतरे पर बैठ गए। महेश कहता है, यार तेरा जर्नलिज्म में हो गया तो तू एडमिशन ले लेना। मैंने कहा कि यार देखते है । फिर कहता है कि कोई दिक्कत है तो बता। मैंने कहा ननन नहीं, कोई दिक्कत नहीं है। फिर महेश कहता है देख एक साल का कोर्स है कि एमए से तो बढ़िया है। कम से कम जर्नलिज्म करने के बाद तूझे जॉब तो मिल जाएगी। तेरा खर्चा तो निकल जाएगा। मै सब बड़े ध्यान से सुन रहा था। पर कुछ बोल नहीं रहा था। फिर मेरी तरफ देखते हुए कहता है बता कोई दिक्कत है तो। फिर मैंने कहा नननन नहीं है। थोड़ी देर बाद मैंने कहा  यार देख, तीस हजार के करीब फीस है, इतनी व्यवस्था हो नहीं पाएगी, और रही बात इतने पैसों की,,, तो मेरे घर में इतना पैसा एक बार में 1997 के बाद से आया ही नहीं। सोचता हूं इस साल कॉल सेंटर में नौकरी कर लूं, कुछ पैसे इक्कठे करके अगले साल आईआईएमसी में एडमिशन ले लूंगा। मैने कहा। महेश ने सर पर एक थप्पड़ मारते हुए कहा कितने पैसे कमा लेगा तूं कॉल सेंटर से। एक साल नौकरी करेगा तो कितने पैसे मिलेंगे तूझे, करीब वहीं पचास - पचपन हजार। फिर रूम का खर्चा है अपना खर्चा, दस हजार भी नहीं बचेंगे। और आईआईएमसी में एडमिशन के लिए साठ सत्तर हजार रूपए चाहिए। देख तू ऐ सब फालतू के कामों में मत पड़। कुछ व्यवस्था करते है तो तू जामिया में एडमिशन ले लेना। दरअसल मैंने अपने दोस्त अभिमन्यु के साथ जामिया में जर्नलिज्म का प्रवेश परीक्षा दिया था। और एडमिशन लेने का ख्वाब अभी परीक्षा परिणाम आने से पहले ही हम दोनों देख रहे थे। एडमिशन को लेकर दुनिया भर का रणनीति बना रहे थे। कि ऐसे पैसे का इंतजाम करेंगे वैसे करेंगे।
तीस जून को रिजल्ट भी आ गया। मै तो पास हो गया। मेरा दोस्त अभिमन्यू को वेटिंग लिस्ट में नाम आ गया। बड़ी दुविधा में फंस गए हम। मेरा तो वैसे ही जनर्लिज्म करने का मन नही  था। मैने अभिमन्यू को कहा यार ऐसा कर मै अपना एडमिशन केंसल करा लूंगा और तू एडमिशन ले ले। उसका वेटिंग लिस्ट में पहला नाम था। फिर वो कहने लगा नहीं तू पढ़ेगा तभी मै पढूंगा।फिर महेश का फोन आया। क्या रहा रिजल्ट का , महेश मुझसे पूछा। मैने कहा पास तो गया पर या पढ़ना नहीं है मुझे। अबे साले बेवकूफ है क्या। महेश ने मुझे कहा। यार नहीं पर पैसे का इंतजाम नहीं हो सकता। कितनी फीस है, महेश ने मुझसे पूछा। मैने कहा यार करीब अठ्ठाइस हजार तो लग ही जाएंगें। ऐसा कर कुछ तू व्यवस्था कर और करीब बीस हजार की व्यवस्था करने की कोशिश मै करता हूं। महेश ने मुझसे कहा। फिर मैंने एक दिन बाद घर फोन किया। सीधे तो पापा से  नहीं कह सकता कि एडमिशन के लिए दस-बारह हजार रुपयों की जरूरत है। क्योंकि घर की परिस्थिति समझता हूं। तोड़ा इधर उधर की बात की , फिर कहा कि पापा वो जो जामिया का एक एग्जाम दिया था न वो ...मैंने पास कर लिया है। पापा ने कहा बहुत अच्छा । किस चीज का एग्जाम था, पापा ने मुझसे पूछा। मैंने कहा पापा वो पत्रकारिता की पढ़ाई के लिए परीक्षा दिया था। क्या होगा इससे, पापा ने मुझसे पूछा। पापा इसे पढ़कर किसी टीवी चैनल या समाचार पत्र में नौकरी कर सकते है। मैंने पापा से कहा। तो बताओं पैसा वैइसा भी लगेगा का , पापा ने मुझसे पूछा। मैंने कहा पापा वो ...क्या है कि फीस तो ज्यादा है पर वो जेएनयू वाला मेरा दोस्त है न महेश ...वो... बीस हजार रूपए देने को कह रहा है। कह रहा  है कि और कि कुछ तू इक्कठा कर ले। पापा ने फिर पूछा कितने रूपयों की जरुरत होगी , मैंने कहा पापा कम से कम दस हजार तो चाहिए ही। यार अभी है तो नहीं पर देखता हूं, पापा ने कहा। तीन दिन बाद पापा का फोन आया, बारह हजार का इंतजाम हो गया है भेज दूं या और चाहिए,  पापा ने मुझसे पूछा । मैने कहा नहीं बस हो जाएगा। दो दिन बाद उन्होंने पंद्रह हजार रूपए मेरे एकाउंट में डाल दिए।  सात जुलाई को जामिया में एडमिशन होना था। पांच को महेश का फोन आया यार पंद्रह हजार का इंतजाम हो पाया है । काम चल जाएगा। मैने कहा चल जाएगा। देखता हूं कल और इंतजाम कर देता हूं कम से कम अठ्ठारह तो कर ही देता हूं। महेश ने कहा।  6 तारीख को शाम को महेश का फोन आया , कहां है  महेश ने मुझसे पूछा , घर पर ही हूं मैंने कहा। ऐसा कर मेरे घर पर आ जा कल एडमिशन के लिए यहीं से जामिया चला जाइओं। मैने अठ्ठारह हजार का इंतजाम कर दिया है।

गुरुवार, 5 जुलाई 2012

समुदाय की अनदेखी, विनाश का विकास





दार्शनिकों, और विषय के विशेषज्ञों की नज़र में हर एक च़ीज की परिभाषाएं अलग अलग होती है ...आम तौर पर सबसे ज्यादा प्रभावशाली परिभाषाएं दाशर्निकों की मानी जाती है ..लेकन एक ऐसे समाज में जहां समाज पर सरकार नामक संस्था का शासन होता है .. वहां पर अधिकतर विशेषज्ञों की ही परिभाषाओं पर अमल किया जाता है...क्योंकि सरकार नामक संस्था विशेषज्ञों पर ही टिकी होती ही ..और ये विशेषज्ञ हमेशा ऐसी रणनीति बनाते है...जिससे फायदा इनके ही पक्ष में होता है...आलेख का शीर्षक समुदाय की अनदेखी और विनाश का विकास है...समुदाय एक ऐसी संज्ञा जो कभी सरकार नाम की संस्था द्वारा प्रयोग नही किया जाता...कहने के सरकार ने तमाम सारी योजनाएं सविंधान संशोधन कर पंचायती राज व्यवस्था को जन्म दिया है ..लेकिन भ्रटाचार के आकंठ में डूबी में इन संस्थाओं के लिए समुदाय की कोई महत्ता नहीं है...विकास, वर्तमान समाज की एक जरूरत कि वो इसके लिए अपना सब कुछ दाव पर लगाने के तैयार है...समाज, परिवार, विद्यालय नाम की संस्थाएं अब अपने वजूद से भटक चुकी है...तो क्यों न समुदाय का अस्तित्व ख़त्म हो..भारतीय परिवेश में परंपरा रही है कि समुदाय हर एक कामों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है ..लेकिऩ वर्तमान विकास की नींव एक सामाजिक समुदाय पर नही बल्कि निजी समुदाय पर अधारित है ...जिसका उद्देश्य हर वक्त शुद्ध लाभ लाभ और या यूं कहें मुनाफ़ा कमाना है ...दरअसल समुदाय का प्रकृति और अपने संस्कृति से रिश्ता भावनात्मक होता है लेकिन कॉर्पोरेट का प्रकृति या मानव समाज से रिश्ता मुनाफ़ा का होता है...यूपीए सरकार में पर्यावरण मंत्री रहे जयराम रमेश ने एक बार उतराखंड में अपने दौरे के दौरान कहा था..कि सरका के अधीन आने वाले वनों से ज्यादा बेहतर स्थिति पंचायत के अन्दर आने वाली वनों की है...इस बाक में कोई अतिश्योक्ति नहीं है....क्यों एक सामाजिक मनुष्य ये बार बार कहता रहता है कि आदिवासियों का जंगल सें जन्म का भावनात्मक रिश्ता है...सबसे बड़ी बात की क्यों आज जो भी वन क्षेत्र बचा है वो केवल आदिवासी बहुल इलाके में ही है..क्योंकि समुदाय विशेष का अपने प्रकृति से लगाव अपने पुत्र के समान होता है ...लेकिन वर्तमान में विकास की सीढ़ी पर चढ़ते हुए हमने समुदाय नाम की जो संस्था थी उसे लात मार दिया...नतीजन विकास व्यवहारिक नहीं बल्कि संस्थागत हो गया...जिसका अंतिम लक्ष्य किसी भी तरह मनुष्य का कल्याण नहीं बल्कि शोषण है...भारत में आज तक समाज के विकास के लिए ऐसी कोई योजना नहीं जिसका आधार सामुदायिक रहा हो...योजनाएं के नाम जरूर सामुदायिक क्योंकि इस सरकार और नौकरशाही को इस संस्था की उपहास जो उड़ाना था.....स्वंतत्र भारत में के इतिहास में विकास के लिए बनीं परियोजनाओं में दामोदर नदी घाटी परियोजना ज्यादा तो नही पर करीब 30 प्रतिशत समुदाय अधारित परियोजना जरूर थी...लेकिन इस परियोजना में भी स्थानीय लोगों को कम बाहरी लोगों को ज्यादा फायदा हुआ...विकास में स्थानीय लोगों की अनदेखी कही से भी समाज , सरकार या नीति नियंताओं के लिए फायदेमंद नही रही...अपने देश में ही कुछ उदाहरण ऐसे है..जो इस बात को साबित करते है कि विकास में स्थानीय समाज की भागीदारी से सतत विकास संभव है...राजस्थान के विश्नोई समुदाय का उदारहण दिया जा सकता है ...इन्होने अपने पारंपरिक करीकों से न केवल अपने क्षेत्र के पेड़ों की रक्षा की बल्कि पारस्थितिकी तंत्र में भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई...भारत के जल पुरूष राजेन्द्र सिंह ने समुदाय अधारित योजनाए बनाकर ही ..क्षेत्र की तमाम नदियों को जीवित किया..और गिरते भूमिगत जल स्तर को उंचा उठाया...ऐसे ही राजस्थान की तमाम क्षेत्रों में जल संरक्षण के लिए पारंपरिक तरीकों का इस्तेमाल कर जल संरक्षण किया जाता है ...इन लोगों को कोई सरकार कोई संस्था ये कहने नही आती की आप जल संरक्षण किजीए...वहीं सरकार के तमाम प्रयास के बावजूद लोग शहरी क्षेत्रों में जल सरंक्षम में महत्व नहीं देते...सरकार कितने ही प्रयास कर ले लेकिन लोग न जल का सदुपयोग करते है..न वर्षा जल का संरक्षण....क्योंकि पहले तो सरकार ने सभी उपलब्ध जल स्रोतों का दुरूपयोग किया..उसके बाद जनता के उपर जल संरक्षण के काम को थोप दिया....ऐसे में जनता सरकार की बेगारी नही करना चाहती....
अब बात आदिवासी क्षेत्रों के विकास की करते है...स्वतंत्र भारत में यदि कोई सबसे सरकार से सबसे ज्यदा शोषित हुआ है तो वो है देश का आदिवासी समाज...कहने को देश में लोकतांत्रिक सरकार है...भारत का संविधान का सबको समान अधिकार देता है ...लेकिन क्या इस देश में समानता लागू हो पाई कत्तई नहीं...आदिवासी बहुल क्षेत्रों में विकास के नाम जितना विनाश हुआ शायद कही नही हुआ शायद ये देश का दुर्भाग्य है कि जिन क्षेत्रों में आदिवासी रहते है उन्ही क्षेत्रों में देश के महत्वपूर्ण संसाधन पाए जाते है ...और इन समुदायों की अनदेखी कर जो विकास किए गए है वो किसी विनाश से कम नहीं हैं....आदिवासी बहुल इलाकों में खनिजों के दोहन के लिए लाखों परिवारों को उजाड़ दिया गया...छत्तीसगढ़, ओडिशा. झारखंड बंगाल में हज़ारों आदिवासी गांवों को निजी कंपनियो के दबाव में उज़ाड़ दिया गया...उजाड़ने के पीछे तर्क दिया गया कि खनिज संसाधनो के दोहन से देश और समाज का विकास होगा...लेकिन क्या इन क्षेत्रों के आदिवासियों का विकास हुआ...नहीं हुआ बल्कि इन्हे इनके ही प्राकृतिक इलाकों से खदेड़ दिया गया...इन लोगों के न पुर्नवास की व्यवस्था की गई...और न ही इनकों रोजगार मिला...ज्यादा कुछ नहीं इस बात को सोचिए कि क्या इनके घरों को उजाड़ने से पहले इनसे पूछा तक गया...क्या इनके इलाकों में उद्योग कौन सा, कैसे, किस प्रकार लगाया जाए कभी इन लोगों से विचार विमर्श किया गया...आप इन लाइनों पर सवाल खड़े कर सकते..कि किसी भी उद्योग को लगाने के लिए सरकार जनता से क्यों पूछे..पर सोचिए आलीशन कोठियों में बैठकर योजनाए बनाने वाली नौकरशाही अगर जनता से प्रत्यक्ष रूप से राय मिशविरा कर योजनाओं को धरातल पर लागू करती है जिसमें स्थानीय जनता की भी सहमती हो तो जनता सरकार के उस काम को अपना समझ कर स्वीकार करेगी...आखिर क्यों आज आदिवासी लोग अपने ही सरकार के खिलाफ हथियार उठाए हुए है ...क्यों लोग सरकार के उस विकास की अवधरणा से सहमत नही है ...जिसका विकास सरकार कर रही है...इसलिए की सरकार के विकास में उस जनता की भागीदारी नगण्य है...

रविवार, 1 जुलाई 2012

लोक प्रशासन का बदलता आयाम

वर्तमान वैश्वीकरण, उदारीकरण, और भूमंडलीकरण के दौर में लोक प्रशासन का स्वरूप बदला है..उस बात से कई इनकार नही कर सकता...हम एक ऐसे दौर में जी रहे है जहां सरकार अपने नागरिकों से जुड़े तमाम सेवाओं, कार्यों को न केवल प्राइवेट कंपनियों को सौंपती जा रही है ...बल्कि सरकार वैश्विक कंपनियों के दबाव में एक तरह से इन कंपनियों को लोगों पर शासन करने तक का अधिकार दे दिया। आज हमारी जरूरते क्या है ..इस बात की जिम्मेदारी सरकार नहीं बल्कि निजी कंपनिया तय करती है ...1990 - 91 में सोवियत संघ के विघटन के बाद एक क्षत्र रूप से अमेरिका का वर्चस्व स्थापित हो गया...पूरे विश्व में निजीकरण का बोलबाला हो गया..ये मान लिया गया है कि अब समाजवादी व्यवस्था की दुनिया में जगह नही है...भारत इन वैश्विक घटनाओं से अछूता नही रहा ….1990 के बाद देश में हुए आर्थिक सुधारों और उदारीकरण के एलान के बाद एक नई आर्थिक व्यवस्था ने जन्म लिया..लाल फिताशाही के अंत के बाद देश में वैश्विक कंपनियों की भरमार हो गई...सरकार धीरे धीरे अपने नागरिकों से जुड़े तमाम क्षेत्रों से पीछे हटती गई....और इन क्षेत्रों में प्रायवेट कंपनियों की घुसपैठ होती गई। विकासशील देशों पर विश्व बैंक और अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोश जैसी संस्थाओं का प्रभाव बढ़ता गया...औऱ वर्तमान में ये संस्थायें विकासशील देशों की राजनीति दिशा भी तय करने लगी है। अब जनता को ये बताया गया कि .. सरकार आपकों बेहतर सेवा देने के लिए पीपीपी मॉडल पर काम करेगी ...नई व्यवस्था के तहत लोगों को सार्वजनिक निजी भागीदारी का सहारा दिया जाएगा..। सरकार अपने नागरिकों से जुड़े हर एक क्षेत्र में पीपीपी मॉडल को अपनाया..नतीजन नौकरशाही का स्वरूप तो बदला ही ..साथ ही पारंपरिक प्रशासन का स्वरूप भी बदला, हालांकि जहां एक तरफ नौकरशाही को जनता की सेवा से दूर कर निजी कंपनियो को जिम्मेदारी दी गई..वही नौकरशाही का स्वरूप भी बदला...और जिम्मेदारिया भी, अब जब हर क्षेत्र निजी क्षेत्र के हवाले है तो ऐसे में नौकरशाही के उपर अहम जिम्मेदारी व्यवस्था की देखभाल करना हो गया, क्या निजी क्षेत्र जनता की उन तमाम आवश्कताओं को पूरा कर रहे पा रहे है। जिस उद्देश्य से उन्हे ये काम सौंपा गया था । क्या जनता उनके काम से संतुष्ट है. इत्यादि ये सभी जिम्मेदारियां वर्तमान नौकरशाही निभा रही है । इस दौर में एक और क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ जिसे संचार क्रांति कहते है। संचार क्रांति ने भारत ही नही उन तमाम विकासशील देशों की सरकार की जनता के प्रति नज़रिए में बड़े स्तर पर बदलाव किया । संचार क्रांति के फलस्वरूप सभी लोकतांत्रिक देशों प्रशासन के स्तर पर व्यापक बदलाव हुआ । जिसे अब सुशासन कहते है । पिछले कुछ दिनों में सुशासन की अवधआरणा का बहुत विस्तार हुआ है।भारत जैसे देशों में सूचना के अधिकार के कारण शासन व्यावस्था में वृहद स्तर पर परिवर्तन हुआ है। एक तरफ प्रशासन जहां सूचना क्रांति के कारण लोगों की समस्यओं का को तेजी से निपटाने की हरसंभव प्रयास कर रह है। वही दूसरी तरफ जनता अपने समस्याओं को लेकर जागरूक हुई है । यही कारण है कि तमाम नवीन प्रशासनिक अवधारणाओं का सृजन हुआ है । जैसे ग्रामीण समस्याओं को सुलझाने के लिए चौपाल , - प्रशासन, मेगा अदालते, आदि । प्रशासन के बदले स्वरूप ने कई क्षेत्रों में अत्यंत प्रभावशाली भूमिका भी निभाई है। दिल्ली जैसे महानगरों में जन भागीदारी योजना के फलस्वरूप तमाम स्थानीय समस्याओं को सार्वजनिक निजी के स्तर पर सुलझाया जा रहा है ।
1990 में हुए लाल फिताशाही के अंत के बाद जब नौरशाही के पर्दा के बाहर कर होकर काम करने लगी, तो एक नए राज व्यवस्था की शुरूआत हुई जिसमें लोक प्रशासन का स्वरूप बदला । जिसे आज नई लोक व्यवस्था के रूप में भी जाना जात है ।

शुक्रवार, 13 अप्रैल 2012

हम भारत के लोग भारत को...: सरकारी मुलाज़िमों से एक वास्ता------------------...

हम भारत के लोग भारत को...:
सरकारी मुलाज़िमों से एक वास्ता
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: सरकारी मुलाज़िमों से एक वास्ता ----------------------------------- कुछ दिनों पहले कुछ सरकारी मुलाज़िमों से पाला पड़ा उनके वर्ताव का ...

सरकारी मुलाज़िमों से एक वास्ता
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कुछ दिनों पहले कुछ सरकारी मुलाज़िमों से पाला पड़ा उनके वर्ताव का नज़रिया किस तरीके से था...पेश एक रिपोर्ट
स्थान-इग्नू का स्टडी सेंटर देशबंधु कॉलेज

एक छात्र इग्नू के स्टडी सेंटर में जाता है उसको सेंटर में अपना एसाइनमेंट जमा कराना होता है ...
छात्र- सर एसाइनमेंट जमा कर लीजिए
इग्नू- उस काउंटर पर जाइए
छात्र- सर एसाइनमेंट जमाकर लीजिए
इग्नू -कोई जवाब नही...
छात्र- सर एसाइनमेंट जमाकर लीजिए...
इग्नू -कोई जवाब नही...
छात्र- सर एसाइनमेंट जमाकर लीजिए...
इग्नू- दिखाई नहीं देता फोन पर बात कर रहा हूं...
छात्र- दिखाई तो दे रहा है पर जमा तो कर लीजिए..
इग्नू- नही जमा कर रहा ..जाओं यहां से जो मन में आए कर लेना..जा के कह दो जिससे कहना है..
छात्र- ऐसे क्यूं बोल रहे है ...
इग्नू- बदत्तमीजी मत करों मै कह रहा हूं जाओं यहां से ...नही जमाकर करुगां तुम्हारा एसाइनमेंट
छात्र-सर बार बार ऐसे मत बोलिए एसाइनमेंट जमा करना आपका काम है और इसे जमाकर करने से मना नहीं कर सकते.
इग्नू- मै कह रहा हूं चले जाओं यहां से ..तुम बताओगे मुझे क्या करना है क्या नही करना..
छात्र- सर मै बता नही रहा हूं ये आपका काम है और इसेक लिए इग्नू आपको तनख्वाह देता है ...औऱ छात्र फीस देते है...आप छात्रों की सेवा करने के लिए बैठे हुए ..

इग्नू के कर्मचारी साहब अब बड़े गुस्से में आ गए है ..और अपनी कुर्सी से खड़े हो गए है,  फुल गुस्से में है ...जो मन में आया है वो बोल रहे है ...चिल्लाना शुरु क दिए है सभी कर्मचारी इक्कठ्ठे हो गए है ...सब मिलकर कह  रहे है एसाइनमेंट जमा नही करना है जो होगा देखा जाएगा...एक बार को मै चुप सा हो गाय लेकिन ज्यादा देर तक नही संभाल सका...अपने आप को ...सभांलता भी कैस जो एक पत्रकार होने का गुमान है  ...पर क्या पता था ये गुमान इन सरकारी मुलाज़िमों के सामने थोड़ी देर में ही उतर जाएगा ...


देखिए आगे की कहानी कैसे शुरु होती है...
छात्र एक बार को थोड़ी देर तक चुप रहता है ...फिर बोलता है सर एसाइनमेंट जमा कर लीजिए...कर्मचारी साहब फिर कहते है मै तुम्हारा एसाइमेंट नही जमा करुंगा जाओ जिसे बुलाना हो बुला लो ..जो करना है कर लो...

बेचारा छात्र को पत्रकारिता का सारा गुमान ज़मीन पर आ चुका है ...सोच रहा है कि क्या करें क्या न करें...
पर बहुत  देर सोचता है कि आखिर सरकारी प्रणालियां और सरकारी मुलाजिमों के खिलाफ लोगों को गुस्सा क्यों आता है ...भावनाएं और भी व्यक्त करु इससे पहले पूरू कहानी सुना देता हूं..

दूबारा जब छात्र के कहने पर इग्नू के कर्मचारी उसका एसाइनमेंट जमा नही करते तो देखिए छात्र क्या करता है

छात्र- इग्नू को कर्मचारियों से परेशान होकर अब पुलिस के शरण में जाता है और सोचता है की उसे वहां से कोई न्याय मिलेगा लेकिन देखिए आगे क्या ह्श्र होता है..
छात्र- 100 नम्बर पर कॉल करता है...पुलिस से रिस्पांस मिलता है
2 बजकर 15 मिनट पर कॉल करता है ठीक 15 मिनट बाद पुलिस आती है
पीसाआर बैन आता है..
अंगडाई लेते हुए पुलिस वाला कहता है.. क्या मामला है ...
छात्र अपना मामला सुनाता है
पुलिस वाला अंगडाई लेते हुए मामला सुनता है ..फिर कहता है करें अब...छात्र कहता है करें क्या सर ...इस तरह की घटना घटी है..कार्रवाई कीजिए..
पीसीआर में बैठे हुए ही ...पुलिस वाला बोलता है चलो थाने में एफआईआर डाल देना फिर देखते है की क्या हुआ है
छात्र बोलता है सर इग्नू के कर्मचारियों की ड्यूटी खत्म हो गई है ..और वो जाने वाले है ...देखिए गेट पर खड़े है ..वो है मोटरसाइकिल वाले..
    पुलिस वाला बोलता है तो क्या दौड़ के पकडू क्या...ऐसे तो नही होता न ..
बेचारा छात्र समाजिक नज़रिय का मारा...तमाम सारी बाते सोचने लगता है और खो जाता है फिर सोचने लगता है कि आखिर पुलिस पर लोगों को गुस्सा क्यों आता है ..तमाम सारी बाते सोचने लगता है ...
अब उसके दिमाग में वो भावनाए उत्पन हो रही है जो व्यवस्था के खिलाफ एक आम आदमी के दिमाग में उत्पन होती ही ..
तभी फोन आता है ..
थाने से बोल रहा हूं
हां भाई क्या मामला है..
छात्र- सर ऐसे हुआ है ..इस इस तरह का मामला है
कोई नहीं थाने आ जाओं और एक एफआईआर डाल दों देख लेगें
छात्र को गुस्सा आता है वो सोचता रहता है कि थाने जाउं न जाउं
अंत में वो ऐ सोच के थाने नही जाता है कि जब पीसीआर आई थी तो उसके सामने आरोपी थे और उसने कुछ नही किया तो थाने जाकर क्या होगा..फिर ये सोचता है कि मेरे जैसे कितने लोग थाने में जाते है कुछ नही होता तो मेरे जाने  से क्या होगा...एक औऱ बार ही सही फिर सरकारी मुलाज़िलों के पाला वैसे भी बहुत दिन हो गए थे ..कम से कम इनका हक़ीक़त तो सामने आई....
घटना के बाद से छात्र मायूस हुआ खुद पर नही..इस व्यवस्था पर...जो अपने पद पर एक बार बैठने के बाद अपने को सर्वसत्ताधारी समझते है...
 हल खोजने लगा इस सामंतवादी व्यवस्था का ..पर नही ढूंढ पाया...अब छात्र थाने भी नही गया..घर लौट आया...


 


गुरुवार, 9 फ़रवरी 2012

खेती..ना बाबा ना..


इंसान का पलायन चाहे जिस वज़ह से हो हमेशा दुखद होता है … आदमी कभी बेहतरी के लिए पलायन करता है तो कभी दुखी होकर पलायन कर जाता है । दरअसल प्रवास इंसानी ज़िन्दगी का एक हिस्सा सा बन गया है । भारत ..जिस देश की 70 प्रतिशत से अधिक की आबादी खेती से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से जुड़ी हुई है ..उस देश में पिछले कुछ सालों से लाखों किसान खेती को छोड़ चुके है..देश में साल दर साल किसानों की आत्महात्या की आकड़ो में बढ़ोत्तरी होती जा रही है । लेकिन सरकार GDP के आकड़े के सहारे यह दावा करती है कि देश में विकास हो रहा है...वहीं योजना आयोग सुप्रीम कोर्ट में यह दलील देता है कि 32 रुपये कमाने वाले ग़रीबी रेखा से उपर है ।



देश में किसानों कि हालत कितना दयनीय है इसका खुलासा साल 2001 कि जनगणना से पता चलता है ...वर्ष 1991 और 2001 के बीच 70 लाख से अधिक किसानों ने जिनका मुख्यपेशा किसानी था.. ने खेती करना छोड़ दिया ...वहीं राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आकंडों की मानें तो देश में 1997 से 2009 तक दो लाख 16 हज़ार 500 किसानों ने मौत को गले लगा लिया ... इससे ये अनुमान लगा सकते है..जहां देश में प्रतिदिन लगभग 2000 किसान खेती छोड़ रहे है वही सैकड़ो किसान आत्महत्या करने पर मज़बूर हो रहे है...लेकिन बड़ा सवाल ये है कि आखिर ये दो हज़ार किसान खेती छोड़कर जाते कहां है .इसका जबाव न सरकार के पास है न ही देश के रोज़गार के आकड़े में मिलता है …

रविवार, 15 जनवरी 2012


समाज और प्रशासन के बारे में मैक्स वेबर के विचार

प्रस्तावनाः- मानव जाति के एक संगठन के रुप में ऐतिहासिक काल से ही समाज ने सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने के हित में और संघर्षो व विवादों को हल करने के लिए खुद को नियम व क़ानूनों का निर्माण किया है। चूंकि सरकार जिसका काम भी क़ानून बनाना है इस दृष्टि से सरकार औऱ समाज एकरुप है । समाज व्यक्तियों के ऐसे समूह को व्यक्त करता है जो इच्छानुसार विकसीत किए गए सिद्धांतो एंव नियमों से जुड़े होते है । और कम से कम या ज्यादा व्यवस्थित सामूहिक जीवन जीते है । सामाजिक विकास कि प्रक्रिया में राज्य एक संस्था के रुप में निर्मित होता है, और राज्य के पास बल प्रयोग की शक्ति होती है । राज्य सभी तरह के सामाजिक संस्थाओं को औपचारिक क़ानूनों , नियमों एंव व्यस्थाओं द्वारा नियंत्रित करता है । सरकार की क्रियाशीलता ही लोक प्रशासन है। सरकार क्या करती है या क्या नहीं करती है इसके द्वारा समाज प्रभावित होता है व इसको प्रभावित करता है । मैक्स बेवर उन कुछ एक विद्वानों में से है जिसने समाज औऱ प्रशासन के संबंधों को अधिक नज़दीक से जानने के लिए प्राचीन इतिहास से लेकर आधुनिक आर्थिक समाज का गहन अध्ययन किया , और उसने पाया किया की नौकरशाही तभी तक विद्यमान है जब तक पूंजीं कि एक स्थिर आय बनी हुई है। वेबर के शब्दों में "कर निर्धारण की एक स्थायी व्यवस्था नौकरशाही प्रशासन के स्थाई रुप से विद्मान रहने की पूर्व शर्त है ।

लोक प्रशासन व समाज:-
सामाजिक परिवर्तन व प्रगति ऐसी परिस्थियों का निर्माण करती है, जोकि सामूहिक क्रिया को प्रोत्साहन या लोक प्रशासनिक संस्थाओं द्वारा सरकारी बाध्यता को प्रोत्साहन देती है । राजनितिक शास्त्र के इतिहास में सामाजिक समझौते का सिद्धान्त एक चिरसम्मत सिद्धान्त रहा है । तीन महान दार्शनिकों हाब्स, लॉक, व रुसो ने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया । प्राकृतिक अवस्था के निरंतर संघर्ष को दूर करने के लिए राजनितिक समाज की स्थापना की गई । और सामान्य सामाजिक संस्था के रुप में राज्य और सरकार का जन्म हुआ । सामाजिक समझौते के तहत समाज का प्रत्येक सदस्य अपने कुछ अधिकार या समस्त अधिकारों को समाज को सौंप देता, और समाज सर्वोच्च बन जाता है । वस्तुत: यह समझौता प्रत्येक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से करता है । इस प्रकार राज्य और समाज के बीच विकसीत होने वाले संबंधों में अपने सामूहिक स्वरुप में प्रत्येक व्यक्ति को समष्टि के अविभाज्य अंग के रुप में स्वीकार करते है । लोक प्रशासन के क्षेत्र के विस्तार ने राज्य और समाज के बीच विकसीत होने वाले स्वरुप के ऐतिहासिक रुप से प्रभावित किया है ।
ड्वाइटो वाल्डो ( DWIGHT WALDO) के अनुसार लोक प्रशासन ही सरकार का मुख्य साधन है जिसकी सहायता से सामाजिक समस्याओं सामाधान किया जाता है । पश्चिमी देशों में नई सामाजिक समस्याओं जैसे , शहरीकरण , वृक्षों की सुरक्षा , सामाजिक कल्याण आदि का समाधान लोक प्रशासन द्वारा किया जा रहा है । भारत जैसे विकासशील देशों में भी राज्य लोक प्रशासन के माध्यम से सामाजिक समस्याओं को दूर करने में लगा है, ताकि सामाजिक आर्थिक विकास सुनिश्चित किया जा सके । आरंम्भ के राज्य ग्रामीण विकास , सामाजिक औद्योगिक विकास एंव शोषक स्तर के सुधार के जैसे कार्यों को संपादित करते थे लेकिन वर्तमान में लोक प्रशासन इसकी ज़िम्मेदारी उठा रहा है । समय के साथ-साथ सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया नित नई चुनौतियों को जन्म देती है । और इस चुनौतियों के समाधान के परिप्रेक्ष्य में लोक प्रशासन का अध्ययन क्षेत्र निरंतर व्यापक होता जा रहा हैं । पर्यावरण प्रदूषण, पारिस्थितकी संतुलन, जल संरक्षण, जैव विविधता जैसी अंतराष्ट्रीय समस्याओं के समाधान के लिए लोक प्रशासन प्रयत्नशील दिखाई दे रहा है ।
एक अन्य महत्वपूर्ण मुद्दा लोकप्रशासन में जेन्डर या स्त्री पुरुष विश्लेषण का है। कार्यो में महिला सहभागिता में लगातार प्रत्येक वर्ष वृद्धि होती जा रही हैं, जोकि कल्याणकारी व पारितोष (COMPENSATION) संबंधी नीतियों, व अन्य संबंधित मुद्दों उदाहरण के लिए, कार्य स्थल पर महिलाओं कि सुरक्षा आदि के संन्दर्भ में प्रशासनिक सुधार की मांग कर रहे है। इसी प्रकार अनेक मुद्दे जैसे बाल श्रम, अस्पृश्यता, बंधुआ मज़दूरी, व अन्य घृणित सामाजिक व्यवहार आदि को रोकना व निवारण करना, ये सभी प्रशासनिक पहल को मांग कर रहे है। विशेष रुप से विकासशील देशों में इसी के परिणाम स्वरुप इन देशों में लोक प्रशासन का क्षेत्र बहुत ही व्यापक हो गया है ।

समाज और प्रशासन के बीच संबंधों पर मैक्स वेबर के विचार:-

नौकरशाही पर मैक्स वेबर के विचार ऐतिहासिक और सामाजिक सिद्धान्त के वृहत दृष्टिककोण के एक महत्वपूर्ण अंग का सृजन करते है । वेबर ने आधुनिक राज्यों में नौकरशाही के उदय के मूल कारणों को जानने के लिए वेबर ने प्राचीन इतिहास का गहन अध्ययन किया उसने पाया की विशाल रोमन साम्राज्य को छोड़कर रोम में कोई भी औपनिवेशिक अधिकारी नहीं था। जूलियस सीजर ने स्थाई सिविल सेवा स्थापित करने का प्रयास किया था लेकिन सफलता नहीं मिली । लेकिन नौकरशाही का पूर्व विकसीत रुप " डिओलिशिएन " के शासन काल में दिखाई दिया । नौकरशाही के उदय और विकास ने रोमन साम्राज्य का पतन कर दिया इसका मुख्य कारण नौकरशाही में फैलता हुआ भ्रष्टाचार था । नौकरशाही ने शासकों पर अधिकार जमा लिया । और नागरिकों कि स्वतंत्रता के अधिकार पर भी शासन स्थापित कर लिया। विशाल प्रशासनिक तंत्र को सुचारु रुप से चलाने के लिए विशेष करों को अनिवार्य रुप से लागू किया । वेबर को इस बात का ज्ञान हुआ कि नौकरशाही तभी चल सकती है जब एक विकसीत पूंजीवादी अर्थव्यवस्था मौजूद है । वेबर के अनुसार , जहां तक अधिकारों की आर्थिक क्षतुपूर्ति की संभंध है पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का विकास नौकरशाही की पूर्व शर्त है ।

गुरुवार, 12 जनवरी 2012

शोषण का अधिकार
वाकया 9 जनवरी का है । किसी काम से मुखर्जी नगर जाना हुआ चूंकि जिसके पास जाना था वह अपने रुम पर 6 बजे के लगभग आने को कहा था , लेकिन मैं 4 बजे ही पहुंच गया था । दो घंटे कैसे बीतते इसके बारे में विचार कर रहा था । अचानक से जीटीबी नगर मेट्रो स्टेशन के बगल में ही 15 बरस का एक लड़का सिविल सर्विस की तैयारी करने वाली किताबों को बेच रहा था । उसके पास अनेक पत्रिकाएं भी पड़ी हुई थी । अचानक से निगाह योजना नाम के एक पत्रिका पर गया । योजना का जो अंक मैने ख़रीदा वह 12 वीं पंचवर्षीय योजना पर अधारित था । पहले ही पेज में राष्ट्रीय विकास परिषद की 56 वीं बैठक में प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह के भाषण के अंश को छापा गया था । पूरे भाषण को पढ़ रहा था जिसमे उन्होंने अपने अर्थशास्त्री ज्ञान का भरपूर प्रयोग किया था । अपने भाषण के अंत में मनमोहन सिंह कहते है "भविष्य वहीं होगा जो हम करके दिखाएंगें  भारत उठ भी सकता है तो भारत गिर भी सकता हैं "  तभी  अचानक से गालियों की आवाज़ सुनाई दी ..देखा तो कुछ  सात- आठ ऑटो चालक रिक्शे वालो के साथ मारपीट कर रहे थे । उन्हें गाली दे रहे थे ।और उनके रिक्शे के साथ तोड़ फोड़ कर रहे । सभी रिक्शे वाले अपने अपने रिक्शे लेकर भागने लगे ऐसे लग रहा था  जैसे कि कोई आंधी आई हो और रिक्शे हवा में उड़ रहे हो । क़रीब 7-8 ऑटो चालकों ने मिलकर  25 से ज्यादा रिक्शे वालो को  मिनट के अंदर खदेड़ दिया । देखने वाली बात ये थी की सैकड़ो की भीड़ थी कोई किसी को कहने वाला नहीं था ।  ऑटो वाले दादागिरी के साथ  रिक्शे वालो को गाली दे रहे थे ।  मारपीट कर रहे थे उन्हे  न क़ानून का डर सता रहा था न ही  इंसानियत नाम की कोई च़ीज दिखाई दे रही थी । दरअसल ऑटो वालो का यूनियन था रिक्शे वाले शरीर से कमज़ोर  तो थे ही उनमें यूनियन भी नहीं था । जिज्ञासा बढ़ी जानने की तो पता चला की  ऑटो वाले  रिक्शे वालो को ज़बर्दस्ती खदेड़ रहे थे । क्योंकि वे नहीं चाहते थे की रिक्शे वाले  यहां से सवारी बिठाए । और इस शहर में कुछ कमा सकें ।  ऐसा नहीं है कि इस तरह का वाकया मैंने कोई पहली बार देखा था लेकिन  वो घटना हृदया विदारक थी । उस दृश्य नें मुझे ये सोचने पर विवश  किया की आखिर इस देश में शोषण का अधिकार किसे है।  वैसे  तो कहने को सविंधान किसी को शोषण  का अधिकार नहीं देता लेकिन समाज में हर वर्ग हर तरह से सभी का  शोषण करने की कोशिश करता है । वैसे ये  बात केवल  रिक्शों और ऑटो चालको की नहीं है । आप किसी भी क्षेत्र में ये आसानी से देख  सकते है ।  हमारे समाज में  शोषण की परंम्परा सदियों से चली आ रही है। वैदिक  काल में  ही मानव को चार वर्गों में बांट दिया गया था । और यही परंपरा आज तक बनी हुई है । पर आज इसका  स्वरुप  बदला है  आज हम एक दूसरे का शोषण सिर्फ़ और सिर्फ़ आपने आप को ऊचा दिखाने के लिए करते है ।