गुरुवार, 5 जुलाई 2012

समुदाय की अनदेखी, विनाश का विकास





दार्शनिकों, और विषय के विशेषज्ञों की नज़र में हर एक च़ीज की परिभाषाएं अलग अलग होती है ...आम तौर पर सबसे ज्यादा प्रभावशाली परिभाषाएं दाशर्निकों की मानी जाती है ..लेकन एक ऐसे समाज में जहां समाज पर सरकार नामक संस्था का शासन होता है .. वहां पर अधिकतर विशेषज्ञों की ही परिभाषाओं पर अमल किया जाता है...क्योंकि सरकार नामक संस्था विशेषज्ञों पर ही टिकी होती ही ..और ये विशेषज्ञ हमेशा ऐसी रणनीति बनाते है...जिससे फायदा इनके ही पक्ष में होता है...आलेख का शीर्षक समुदाय की अनदेखी और विनाश का विकास है...समुदाय एक ऐसी संज्ञा जो कभी सरकार नाम की संस्था द्वारा प्रयोग नही किया जाता...कहने के सरकार ने तमाम सारी योजनाएं सविंधान संशोधन कर पंचायती राज व्यवस्था को जन्म दिया है ..लेकिन भ्रटाचार के आकंठ में डूबी में इन संस्थाओं के लिए समुदाय की कोई महत्ता नहीं है...विकास, वर्तमान समाज की एक जरूरत कि वो इसके लिए अपना सब कुछ दाव पर लगाने के तैयार है...समाज, परिवार, विद्यालय नाम की संस्थाएं अब अपने वजूद से भटक चुकी है...तो क्यों न समुदाय का अस्तित्व ख़त्म हो..भारतीय परिवेश में परंपरा रही है कि समुदाय हर एक कामों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है ..लेकिऩ वर्तमान विकास की नींव एक सामाजिक समुदाय पर नही बल्कि निजी समुदाय पर अधारित है ...जिसका उद्देश्य हर वक्त शुद्ध लाभ लाभ और या यूं कहें मुनाफ़ा कमाना है ...दरअसल समुदाय का प्रकृति और अपने संस्कृति से रिश्ता भावनात्मक होता है लेकिन कॉर्पोरेट का प्रकृति या मानव समाज से रिश्ता मुनाफ़ा का होता है...यूपीए सरकार में पर्यावरण मंत्री रहे जयराम रमेश ने एक बार उतराखंड में अपने दौरे के दौरान कहा था..कि सरका के अधीन आने वाले वनों से ज्यादा बेहतर स्थिति पंचायत के अन्दर आने वाली वनों की है...इस बाक में कोई अतिश्योक्ति नहीं है....क्यों एक सामाजिक मनुष्य ये बार बार कहता रहता है कि आदिवासियों का जंगल सें जन्म का भावनात्मक रिश्ता है...सबसे बड़ी बात की क्यों आज जो भी वन क्षेत्र बचा है वो केवल आदिवासी बहुल इलाके में ही है..क्योंकि समुदाय विशेष का अपने प्रकृति से लगाव अपने पुत्र के समान होता है ...लेकिन वर्तमान में विकास की सीढ़ी पर चढ़ते हुए हमने समुदाय नाम की जो संस्था थी उसे लात मार दिया...नतीजन विकास व्यवहारिक नहीं बल्कि संस्थागत हो गया...जिसका अंतिम लक्ष्य किसी भी तरह मनुष्य का कल्याण नहीं बल्कि शोषण है...भारत में आज तक समाज के विकास के लिए ऐसी कोई योजना नहीं जिसका आधार सामुदायिक रहा हो...योजनाएं के नाम जरूर सामुदायिक क्योंकि इस सरकार और नौकरशाही को इस संस्था की उपहास जो उड़ाना था.....स्वंतत्र भारत में के इतिहास में विकास के लिए बनीं परियोजनाओं में दामोदर नदी घाटी परियोजना ज्यादा तो नही पर करीब 30 प्रतिशत समुदाय अधारित परियोजना जरूर थी...लेकिन इस परियोजना में भी स्थानीय लोगों को कम बाहरी लोगों को ज्यादा फायदा हुआ...विकास में स्थानीय लोगों की अनदेखी कही से भी समाज , सरकार या नीति नियंताओं के लिए फायदेमंद नही रही...अपने देश में ही कुछ उदाहरण ऐसे है..जो इस बात को साबित करते है कि विकास में स्थानीय समाज की भागीदारी से सतत विकास संभव है...राजस्थान के विश्नोई समुदाय का उदारहण दिया जा सकता है ...इन्होने अपने पारंपरिक करीकों से न केवल अपने क्षेत्र के पेड़ों की रक्षा की बल्कि पारस्थितिकी तंत्र में भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई...भारत के जल पुरूष राजेन्द्र सिंह ने समुदाय अधारित योजनाए बनाकर ही ..क्षेत्र की तमाम नदियों को जीवित किया..और गिरते भूमिगत जल स्तर को उंचा उठाया...ऐसे ही राजस्थान की तमाम क्षेत्रों में जल संरक्षण के लिए पारंपरिक तरीकों का इस्तेमाल कर जल संरक्षण किया जाता है ...इन लोगों को कोई सरकार कोई संस्था ये कहने नही आती की आप जल संरक्षण किजीए...वहीं सरकार के तमाम प्रयास के बावजूद लोग शहरी क्षेत्रों में जल सरंक्षम में महत्व नहीं देते...सरकार कितने ही प्रयास कर ले लेकिन लोग न जल का सदुपयोग करते है..न वर्षा जल का संरक्षण....क्योंकि पहले तो सरकार ने सभी उपलब्ध जल स्रोतों का दुरूपयोग किया..उसके बाद जनता के उपर जल संरक्षण के काम को थोप दिया....ऐसे में जनता सरकार की बेगारी नही करना चाहती....
अब बात आदिवासी क्षेत्रों के विकास की करते है...स्वतंत्र भारत में यदि कोई सबसे सरकार से सबसे ज्यदा शोषित हुआ है तो वो है देश का आदिवासी समाज...कहने को देश में लोकतांत्रिक सरकार है...भारत का संविधान का सबको समान अधिकार देता है ...लेकिन क्या इस देश में समानता लागू हो पाई कत्तई नहीं...आदिवासी बहुल क्षेत्रों में विकास के नाम जितना विनाश हुआ शायद कही नही हुआ शायद ये देश का दुर्भाग्य है कि जिन क्षेत्रों में आदिवासी रहते है उन्ही क्षेत्रों में देश के महत्वपूर्ण संसाधन पाए जाते है ...और इन समुदायों की अनदेखी कर जो विकास किए गए है वो किसी विनाश से कम नहीं हैं....आदिवासी बहुल इलाकों में खनिजों के दोहन के लिए लाखों परिवारों को उजाड़ दिया गया...छत्तीसगढ़, ओडिशा. झारखंड बंगाल में हज़ारों आदिवासी गांवों को निजी कंपनियो के दबाव में उज़ाड़ दिया गया...उजाड़ने के पीछे तर्क दिया गया कि खनिज संसाधनो के दोहन से देश और समाज का विकास होगा...लेकिन क्या इन क्षेत्रों के आदिवासियों का विकास हुआ...नहीं हुआ बल्कि इन्हे इनके ही प्राकृतिक इलाकों से खदेड़ दिया गया...इन लोगों के न पुर्नवास की व्यवस्था की गई...और न ही इनकों रोजगार मिला...ज्यादा कुछ नहीं इस बात को सोचिए कि क्या इनके घरों को उजाड़ने से पहले इनसे पूछा तक गया...क्या इनके इलाकों में उद्योग कौन सा, कैसे, किस प्रकार लगाया जाए कभी इन लोगों से विचार विमर्श किया गया...आप इन लाइनों पर सवाल खड़े कर सकते..कि किसी भी उद्योग को लगाने के लिए सरकार जनता से क्यों पूछे..पर सोचिए आलीशन कोठियों में बैठकर योजनाए बनाने वाली नौकरशाही अगर जनता से प्रत्यक्ष रूप से राय मिशविरा कर योजनाओं को धरातल पर लागू करती है जिसमें स्थानीय जनता की भी सहमती हो तो जनता सरकार के उस काम को अपना समझ कर स्वीकार करेगी...आखिर क्यों आज आदिवासी लोग अपने ही सरकार के खिलाफ हथियार उठाए हुए है ...क्यों लोग सरकार के उस विकास की अवधरणा से सहमत नही है ...जिसका विकास सरकार कर रही है...इसलिए की सरकार के विकास में उस जनता की भागीदारी नगण्य है...