सोमवार, 29 जुलाई 2013

'स्वर्ग' में मौत का तिलिस्म


धरती के स्वर्ग जम्मू कश्मीर में हमेशा स्थानीय लोगों और सेना, पुलिस के बीच टकराव होता रहता है। झड़प में मौत फिर, एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप, कश्मीरी युवाओं की दिल्ली केंद्र से बढ़ती दूरी, सरकार की उदासीनता सहित तमाम बातें की जाती है। कभी-कभी मुझे ये लगता का देश की जनता को गुमराह राजनीतिक जमात ही नहीं बल्कि हमारे देश के ताथाकथित बुद्धिजीवी पत्रकारों का वर्ग भी करता है। एक बार फिर शांत सा रहने वाला चिनाब क्षेत्र सेना और उपद्रवियों के कारण अशांत हो गया है। 17 जुलाई की दरमियान रात में स्थानीय लोगों और बीएसएफ के जवानों के बीच झड़प, फिर दूसरे दिन सुबह करीब 6 बजे पुलिस और बीएसएफ की फायरिंग में चार प्रदर्शनकारियों की मौत से पूरे रामबन जिले के गूल इलाके में तनाव है। अक्सर कश्मीर मुद्दे पर लिखने वाले पत्रकार शुजात बुखारी रामबन जिले के गूल में हुई घटना को संदर्भ में रखते हुए नई दुनिया में 24 जुलाई को लिखते है कि "राजनीतिक अधिकार के अभाव में एक कश्मीरी आज खुद को दिल्ली से बहुत फासले पर महसूस करता है। वह मानने लगता है कि दिल्ली की हुकूमत को उसकी परवाह नहीं है, और खुद ही नहीं चाहती की घाटी की समस्याओं का कभी अंत हो। अलग-थलग कर दिए जाने की भावना आम कश्मीरियों के मन में गहरे पैठी हुई है।" अपने पूरे लेख में उन्होने इस तरह की हालातों के लिए केंद्र को जिम्मेदार और कश्मीरियों की दिल्ली की बढ़ती अनदेखी का जिक्र किया है। पूरे लेख में कहीं भी कश्मीर सरकार की किसी भी तरह की जिम्मेदारी नहीं दिखाई गई है, लेख ऐसा है जैसे कश्मीर में कोई सरकार नहीं है बल्कि सब कुछ दिल्ली से होता है। खैर, वो ही नहीं उनके जैसे तमाम लोग इसी तरह का विचार रखते है। लेकिन कई बार परिस्थितियां कुछ और होती है, और उसका चित्रण कुछ अलग तरीके से किया जाता है। रामबन के गूल में हुई ताजा घटना इसका उदारहण है। दरअसल, 17 जुलाई की रात करीब 9 बजे बीएसएफ की एक टुकड़ी धरम चेक पोस्ट पर रूटीन गश्त पर थी। सेना को रास्ते में एक व्यक्ति मिला जिसका नाम मोहम्मद लतीफ था वो एक स्थानीय मस्जिद में इमाम बताया गया। शक के आधार पर जवानों ने उससे उसका परिचय पूछा, जिसे वो देने की बजाय उन जवानों से उलझ गया। बात आई-गई हो गई। लेकिन सेना के मुताबिक थोड़ी देर बाद वो शख्स अपने कुछ समर्थकों, जवान लड़कों और बच्चों के साथ बीएसएफ के कैंप के पास आकर हंगामा करने लगा। सेना ने स्थानीय पुलिस और प्रशासन के बुलाया रात में बात सुलट गई। लेकिन दूसरे दिन सुबह करीब 400-500 स्थानीय लोग वहां आ धमके, और बीएसएफ कैंप पर पत्थरबाजी करने लगे। भीड़ से किसी ने फायरिंग भी कि जिससे बीएसएफ के करीब 9 जवान घायल हुए। जिनमें से कईयों को गोली भी लगी थी। जबावी कार्रवाई में स्थानीय पुलिस और सेना की तरफ से भी फायरिंग हुई जिसमें चार प्रदर्शनकारियों की मौत हो गई। मरने वालो में फारूख अहमद शाह था जो एक गरीब परिवार से था, एक अपाहिज बीवी और दो बच्चों के साथ रहता था, दूसरे मंसूर अहमद खान थे, जो राजनीति विज्ञान के प्राध्यापक थे, और दो बच्चे थे जिनकी मौत सेना की गोलीबारी हुई थी। घटना के बाद पूरे कश्मीर में हालात तनावपूर्ण हो गए। अलगाववादी नेताओं के लिए तो जैस वसंत का मौसम आ गया, जेकेएलएफ के चेरयमैन यासीन मलिक, अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी और हुर्रियत के नेता मीरवाइज उमर फारूख अपने-अपने घरों से निकले और कश्मीर बंद का एलान कर दिए। अपने समर्थकों को इक्ट्ठा कर इन लोगों ने सेना के जवानों पर पत्थबारी करवाया, जबरन लोगों से दुकानों के शटर बंद करवाया। इन सभी उपद्रव में पीडीपी का भरपूर समर्थन था। मृतक राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर मंसूर अहमद शान के भाई और पीडीपी नेता इंम्तियाज हुसैन शान का आरोप है कि मंसूर की मौत सब-इंस्पेक्टर मोहम्मद अफजल वानी के गोली चलाने से हुई है। जिस समय घटना हुई उस दौरान अफजल वानी धरम इलाके में सनगादन चौकी के प्रभारी थे। प्रदर्शनकारी चौकी के आस-पास विद्रोह कर रहे थे। इंम्तियाज हुसैन का आरोप है कि सब-इंस्पेक्टर मोहम्मद अफजल वानी गूल से कांग्रेस विधायक अजाज अहमद खान के नजदीकी है, अजाज राज्य सरकार में वाणिज्य राज्य मंत्री है। वहीं स्थानीय लोगों का कहना है इन दोनों परिवारों ( मृतक प्रोफेसर मंसूर अहमद शान और सब इंस्पेक्टर मोहम्मद अफजल वानी) में पहले से ही आपसी राजनीतिक रंजिश चली आ रही है। मृतक प्रोफेसर मंसूर की बहन शमशादा साल 2008 में पीडीपी के टिकट पर चुनाव लड़ी थीं। इसके बाद उन्होने नेशनल कांफ्रेस ज्वाइन कर लिया। घटना के राजनीतिक विरोध को देखते हुए उमर अब्दुल्ला की सरकार ने सब-इंस्पेक्टर मोहम्मद अफजल वानी के खिलाफ एफआईआर दर्ज करते हुए उन्हे उनके मूल निवास गूल से बाहर भेज दिया है। इन सब तथ्यों के बावजूद पत्रकार, बुद्धजीवी, तथाकथित सिविल सोसाइट और तमाम एनजीओ केवल दिल्ली की सरकार और सेना को दोषी ठहराते है। साथ ही मौके की ताक में बैठे अलगावादी तत्व इलाके में हर कीमत पर स्थितियों को असामान्य करने की कोशिश करते है। ये लोग किसी भी घटना को ऐसा रुप दे देते है जिससे हालात सामान्य होने में महीनों लग जाते है। इन लोगों के द्वारा सेना को जानबुछकर उकसाया जाता है, फायरिंग और पत्थरबाजी की जाती है। अपने घरों में बैठे ये लोग गरीब लोगों, युवाओं को धार्मिक उन्मादी बनाकर सड़क पर उतारते है, उन्हे मरने के लिए उकसाते है, और अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकते है। इसी मौसम में बरसाती मेंढक की तरह बुद्धिजीवी भी अपने घरों से बाहर निकते है, और कश्मीरी युवाओं की दिल्ली से बढ़ती दूरी का दार्शनिक शास्त्र पेश करते है, और इन सभी में जम्मू कश्मीर सरकार की मौन सहमति होती है। मेरे समझ में आज तक ये बात नहीं आई कि जम्मू काश्मीर का युवा क्यों दिल्ली से फासले पर महसूस करता है, जबकि वहां एक लोकतांत्रिक चुनी हुई सरकार है, राज्य का अपना वित्तीय बजट है, इसके आलावा भी हर साल केंद्र से हजारों करोड रुपए दिए जाते। जम्मू काश्मीर के लोगों को नौकरियों में विशेष रियायत भी दी जाती है। देश के दस सर्वाधिक विकसित राज्यों में जम्मू काश्मीर एक है। मानव विकास सूचकांक में भी जम्मू कश्मीर का अच्छा स्थान है। लेकिन इसके बाद भी जब-जब जम्मू कश्मीर में प्रदर्शन होते है, सेना-स्थानीय लोगों में झड़प होती है, लोग मारे जाते तो विकास का मुद्दा उठाया जाता। ये राग अलापा जाने लगता है कि यहां के युवा दिल्ली से अपने आप को अलग-थलग पाते है। मुझे लगता है जम्मू काश्मीर से ज्यादा गरीब भारत के अन्य राज्य है लेकिन उन राज्यों में विद्रोह नहीं होता। होता भी है तो वहां के युवा दिल्ली से नहीं बल्कि उस राज्य अपने हाक की मांग करते है। परंतु जम्मू काश्मीर में ऐसा नहीं होता। ताज्जुब की बात तो ये है कि कभी कोई जम्मू काश्मीर का आम युवा सामने आकर ये नहीं कहता कि वो दिल्ली से दूरी महसूस करता है। हां जो सामने आता है वो देश में आईएएस की परीक्षा टॉप कर जाता है।