मंगलवार, 21 जून 2011

इस सफर का हमसफर कौन....

आपको एक ऐसा सफर करना हो जिसमे आपको ये पता ही न हो की आपको कब किस तरह के मोड़ मिल जाये कब कहॉ आपको आपकी मंजिल मिल जाये ..या कब आपको रास्ते में ठोकर मिल जाये ....और आप गिर जाये जहाँ आपको कोई उठाने वाला तक न.हो देर तक घिघियाते रहे ..गिडगिडाते रहे ......कराहते रहे कोई पूछने वाला तक न हो   तो आप क्या करेंगे ...जनाब कुछ नहीं कर सकते...बस कराहते रह सकते हैं..हम गिडगिडाते रह जायेगें ...बहुत हो सके तो दो चार आंसू बहा लेगें अपनी बदकिस्मती पर...अरे दोस्त इससे ज्यादा... अपने बस की कुछ हैं भी तो नही .वाकई में अगर जिंदगी आपको इस तरह बितानी हो जहॉ पल पल आपको ये सोचना हो की ..अगले घंटे कुछ भी हो सकती  हैं... ऐसे हालात में बढ़ा मजा भी आता हैं...पर बढ़ा दर्द भी होता ...लेकिन दर्द पता हैं क्यों होता हैं..क्योकि हम दूसरो को देखते की यार वो.. तो ......
लेकिन ऐसे जिंदगी का मज़ा ही कुछ अलग होता हैं जो बहुत कम लोगो को  मिलता हैं.... पर जिसे मिलता उससे पूछना ये मज़ा ...क्या लाजवाब होता हैं....लिखते हुये मुझे ये यकीन हो रहा हैं..मेरे भी जिंदगी का फलसफा भी कुछ इसी तरह का हैं...हर एक दिन को गुजारने के बाद दुसरे दिन के लिये संर्घष शुरु हो जाता हैं...लेकिन एक बात देखिये की ये पिछले 6 सालो से लगातार चल रहा हैं ..कभी कभी तो बढ़ा बवंढर भी आ जाता हैं..लेकिन एक बात मेरे साथ रहा हैं की ...की अंतिम मोड़ पर कोइ न कोई न कोई ऐसा मिल जाता हैं जो मुझे गर्दिश में जाने बचा लेता हैं...पर वो ज्यादा दूर तक मेरे साथ नहीं चलता कुछ दूर चलने के बाद वह व्यक्ति मेरा साथ छोड़ देता हैं....आज से 6 साल पहले जब मैं दिल्ली आया तो कुछ लोगो ने साथ दिया ..सफर आगे बढ़ता गया कुछ और लोगो ने साथ दिया...स्कूल से ग्रेजुएशन कर लिया ..पर इस सफर के दौरान अधिकरतर लोगो ने जिसने मेरा साथ दिया उसका मेरे साथ कोई न कोई स्वार्थ जुड़ा था...पर उनके स्वार्थ के साथ मेरा भी काम पूरा होता गया ...उन मुश्किलो से निकले तो दूसरी  मुश्किले हमारा हमसफर बन....जाती थी जब जब परेशान हो जाते थे तो भरी दुपहरी में काँल सेंटर में नौकरी के निये निकल पड़ते थे ...एक बार नहीं कई बार ऐसा हुआ ..हर बार मुंह लटकाकर रुम पर चले आते थे..पता हैं क्यूं ..अंग्रेजी नहीं  आती  थी ..कहीं पर जाते थे तो कहता की तुम्हारी उम्र 18 नहीं हुयी हैं....पर कोई हमारी समस्याये सुनने को तैयार नहीं होता था.....कभी बच्चो को ट्यूशन पढा़ लिया करते थे लेकिन उससे रुम का रेंट तक नही  निकलता था....बीती कहानियाँ इतनी अच्छी हैं की एक फिल्मकार अपनी फिल्म पूरी कर सकता हैं....चलिये अब छोडि़ये उन बातो को  वर्तमान सफर की बात कर लेते हैं...आज से साल भर पहले जब ग्रेजुएशन पूरा हुआ तो विकल्प था.. कि  कॉल सेंटर में जॉब कर लेते हैं.. साथ ही साथ ओपन से  एम.ए कर लेगें..क्योकि पढ़ने के लिये वक्त था पर फीस जमा करने के लिये पैसे नही थे...मेरे दोस्तो ने काहा की जर्नलिज्म कर ले .बस जामिया में गया फार्म भर दिया ....मेहनत किया ..प्रवेश परीक्षा पास कर गया पर ..फीस था ..पूरे ..28000 हजार रुपये.जो 1995 से मेरे घर में कभी आया ही नहीं...पढ़ने का मूड बिल्कुल नहीं था ...हर बार की तरह अंतिम समय में एक हमसफर मिला..मेरे नाउम्मीदो पर एक उम्मीद लेकर आया और कहॉ कि नहीं तूझे जामिया में एडमिशन लेना होगा ..जितना भी फीस होगा मैं दूगां......
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और उसकी वजह से आज मैं कुछ शब्दो को लिखने काबिल हो बन सका हूं...