रविवार, 25 दिसंबर 2011

अलविदा 2011...



 अलविदा 2011...सुस्वागतम् 2012



एक ऐसे समय में मैं इस वर्ष से को अलविदा कहने वाला हूं जब सब कुछ उम्मीद के मुताबिक बेहतर रहा। मेरे साथ कुछ भी ऐसा नहीं हुआ जो अप्रात्यासित था। मैं सभी की जिम्मेदारी तो नहीं लेता की सभी के लिए ये साल बेहतर रहा होगा, लेकिन मैं उम्मीद करता हूं की सभी खुश रहे।
देश दुनिया बहुत बड़ा है मैं कत्तई इसके बारे में चर्चा नहीं करने जा रहा कि इस गुजरते साल में देश दुनिया का क्या हाल रहा है। मैं तो बस अपने बारे में बताने जा रहा हूं कि ये साल में मेरे लिए कैसा रहा ।इस गुजरते साल के सफ़र की शुरुआत जाहिर सी बात है कि 31 दिसम्बर की मध्यरात्रि से हुआ। ठीक बारह बजे जब दिल्ली के लोग पटाखे फोड़ रहे थे तो मै अपने कपड़े धो रहा था । पढ़ाई लिखाई के बारे में सब कुछ पुराना है लेकिन विचारों में बहुत बदलाव आ गया है। क्योंकि दिल्ली विश्वविद्यालय से निकले के बाद जब मैं जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय में पत्रकारिता का छात्र बना तो अचानक से विचार या यूं कहूं कि हर एक चीज़ो को सोचने का तरीक़ा बदल सा गया है। मुझे लगता है मैं थोड़ा सामाजिक हुआ हूं ।मतलब ये कि अब मैं चीज़ो को केवल अपने उपर लागू करके नहीं देखता बल्कि होलिस्टिक तरीक़े से देखता हूं। जामिया में हमें समाज से क़रीब से जुड़ने की राह दिखाई गई जिसका मेरे उपर साकारात्मक असर भी हुआ। हां यहां तक पहुचनें में कई मित्रों का भी अहम योगदान रहा। जो सबसे बड़ी बात इस साल की मेरे लिए रही है, वह है बतौर कैरियर के रुप में पत्रकारिता के क्षेत्र में काम करना । जो कि पहले से मैं कभी सोचा नहीं था । चूकिं अब पत्रकारिता कर ही रहा हूं तो अब हम खुद से उम्मीद कर रहा हूं कि बतौर पत्रकार एक बेहतर इंसान भी बन सकूं । इस साल के सफ़र की बात कुछ मित्रों के साथ कि जाए तो कुछ खास नहीं रहा । मतलब कि वो पहले वाली वो बात नहीं रही क्योंकि ज़िन्दगी बहुत व्यस्त हो गई है। और दिल्ली विश्विद्यालय छूटने के बाद तो सब के सब अलग अलग हो गए। पर इस साल हम सभी एक बार मिले ज़रुर थे । पर वो अपनापन नहीं । पर कॉलेज टाइम में जो अपना ग्रुप था आज भी उसमें कोई कमी नहीं आई है। अपने ग्रुप के साथ तो इस साल में कई बार मिले ।
अब चूंकि नौकरी करने लगे है , क्योंकि इस शहर में गुजारा करना मुश्किल है बिना नौकरी के। तो जाहिर सी बात है यहां पर भी कुछ अपने से लगते है तो कुछ एक से दिक्कत भी होती है ..पर कुल मिलाकर इस साल का सफ़र मेरे लिए इसलिए यादगार रहेगा क्योंकि 2011 से मैने अपने कैरियर की शुरुआत की है अब देखते है ये सफ़र किसके साथ और किस तरह गुज़रता है ।

मंगलवार, 20 दिसंबर 2011

बड़ा इरींटेटिंग था यार....



तमाम सारे अंग्रेजी के शब्द है जिनका मतलब मुझे पता नहीं, बहुत साफ कहूं तो अंग्रेजी कामचलाऊ ही आती है, हां इतनी जरुर आती है कि अपना काम चल जाता है। पर मुझे कई शब्दों का मतलब पता नहीं होता ,काफी सारे दोस्त है, अधिकतर साथ रहते हुए बातों - बातों में अंग्रेजी के शब्दों का इस्तेमाल करते है, कई शब्दों का मतलब पता होता है तो बोल बतियां लेते है, कईयों के मतलब पता नहीं होते तो सर हिला के काम ख़त्म कर लेते है। हिन्दी की हालत भी कुछ ठिक नहीं है लिखता हूं तो व्याकरण कि बहुत सारी ग़लतिया सामने आती है ,पर सीख रहा हूं । उम्मीद है कि बहुत जल्द ही सुधार कर लूंगा।
ये तो बातें अपने ज्ञान के बारें में थी कि मुझे क्या और कितना आता है। अब कुछ उन समाजिक पहलुओं के बारे में जिसका नाता मेरे जीवन से रहा है जिससे मैनें बहुत कुछ सीखा समझा और जाना है। पिछले 7 सालों से दिल्ली में रह रहा हूं अनेक लोगों के साथ और अनेक परिस्थितियों के बीच रहा । जिन परिस्थितियों के बीच रहा जिन हालातों का सामना किया वह वाकई में मेरे लिए क़ाफी ज़रुरी थी । दिल्ली में काफी मित्र बनें । कुछ साथ है तो कुछ.. कुछ पल के लिए ही साथ थे । कोई शहरी था कई कोई गांव का मिला। अब बात अपने स्वभाव की, तो अपना स्वभाव हमेशा से गंवई रहा है, इसीलिए मै बहुत से दोस्त जो शहरी थे उन्हे बहुत कम पसंद था। अधिकतर को शिकायत रहती थी की ये बहुत इरीटेट करता है। हांलाकि कोई मुझसे नहीं कहता था लेकिन मुझे पता चल जाता था। कि ऐसा किसी ने कहा है।
किसी के साथ चलना चाहते है तो आपको कई च़ीजो का ध्यान रखना पड़ता है । पर मेरा ये भी मानना है कि आप एक परफेक्ट इंसान नहीं हो सकते कोई न कोई कमी ज़रुर रह जाती है । हां हम अपने हिसाब से सोच सकते है ..कि हम सहीं है, पर ये ज़रुरी नहीं की जिसके साथ हम रहते है उसे हमारी हर आदते पसंद हो । वैसे एक बात जो मैं सोच समझ पाता हूं कि हमें हर वक़्त उसी तरीक़े से रहना चाहिए जैसे हम अपने आप को कंफरटेबल महसूस कर सके । दिखावे के चक्कर में बहुत सी ऐसी आदतों को हम धारण कर लेते है जो हमारी व्यक्तित्व के लिए सही नहीं होती । पर हम है तो एक मनुष्य, कई बार होता क्या कि है कि हम जहां पर जाते हमें उसके हिसाब से ढलना भी पड़ता है। इसीलिए भी ढलना पड़ता है कि वो समय ,परिस्थिती या यूं कहें कि वक़्त की नज़ाकत की मांग होती है । और जब हम माहौल के हिसाब से हर जगह अपने आप को फिट कर लेते है तो वो हमारे लिए भी सही होता है।
कुल मिलाकर आप हमेशा अपने हिसाब से रहे, अपनी ज़िन्दगी को अपने हिसाब से जिए पर जब आप दूसरों के साथ रहे उनकी भावनाओं की भी कद्र करना सीखें ,ताकि कोई आपके साथ वक़्त गुजारने के बाद ये न कह सके कि की यार वो तो बड़ा इरीटेटिंग इंसान था।