गुरुवार, 11 अक्तूबर 2012

वो छत पर आई...और हम पास हो गए...


सुबह सो कर उठते ही इस बात का इंतजार रहता था कि कब तीन बजे। पत्रकारिता की प्रवेश परीक्षा के लिए तैयारी जो करनी थी। एक ही खटिया थी। तीन बजे के बाद सूरज थोड़ा पश्चिम हो जाता था।  दीवार के किनारे छांव हो जाती थी। कौन खटिया के पश्चिम में बैठेगा और कौन पूरब इस बात की लड़ाई उजाले से सूरज के ढलने तक होती थी। थोड़े से छांव में रखे खटिया पर अक्सर ब्लू क लर का चादर बिछा देते थे। दोनों दिशाओं में बैठने की हड़बोड़ में बिछे चादर का पता भी नहीं चलता था। पूरब की ओर मुंह करके बैठना फायदेमंद था। इसीलिए हर वक्त इसी की लड़ाई होती थी। एक बैट बॉल भी थी। उसमें भी झंझट ही था। अधिकतर हम आपस में क्रिकेट खेलते वक्त सोचते है कि सबसे ज्यादा बैंटिग मिले। लेकिन उस  समय हम दोनों को बॉलिग करना ज्यादा फायदेमंद था। क्योंकि देखना  पूरब ही था। हां बैट बड़ा अजीब था,  छत पर एक लकड़ी का पटरा था, उसे बैट बना लिया था। उसे छिपाना भी था तो दीवारों के किनारों ही खेलते थे कि दूसरे को  दिख न पाए कि हम पटरी से खेल रहे है।  मै या अभिमन्यु में इस बात की होड़ लगी रहती थी बॉल हम फेकेंगे हम फेकेंगे। इसीलिए पूरब की ओर मूह करके बॉ फेकना होता था, जहां वो डेली  पूरब में उस छत पर तीन बजे के बाद आ जाती थी,  बॉल फेंकते फेंकते दीवार के उस पार भी चली जाती थी, पर अफसोस नहीं रहता क्योंकि दो रूपए वाली बाल रहती थी। न ज्यादा उड़ती थी न ज्यादा कूदती थी। दो छतों को पार कर तीसरे छत पर वो पिछले एक महीने से डेली आ जाती थी। पता नहीं कैसा एक अनजाना सा मूक लगाव हो गया था उससे। कभी कभी आवाज भी केवल उसी छत से आ जाती थी। पर हमारे छत से 'बर्फी' जैसी प्रतिक्रिया ही होती थी। क्योंकि हम दोनों ठहरे फट्टू आदमी। दुनिया भर की समाचार पत्रों की कतरन काटकर इक्कठा कर लिए थे। पढ़ते एक नहीं अगर पढ़ने बैठ गए तो  उन कतरनों की लाइनों से इतना मतभेद की बहस में घंटा बीत जाता था।  पिछले करीब पंद्रह दिन से यही सिलसिला जारी था। दिन से सूरज के लालिमा तक पढ़ाई करके थक जाते थे। तो फिर एक दो किलोमीटर की सैर करके आ जाते थे। उसके बाद खाना बनाते और खाकर सो जाते । सोने के बाद भी अगले सूर्योदय के तीन बजे का  इंतजार रहता था।जामिया से पत्रकारिता की पढ़ाई करनी थी। शौक मित्र महोदय अभिमन्यु साहब ने लाई थी। हुजूर का फरमान था की करेंगे तो जर्नलिज्म ही करेंगे।  अब जामिया से पढ़ने के लिए एंट्रेंस एग्जाम पास करना तो जरूरी था न , तो महीने भर से पढ़ाई शुरू कर दी थी, उस समय बदरपुर में मै जिस मकान में रहता था उस घर में कोई था नहीं । मकान मालिक ठहरा अपना दोस्त। परवाह किसी बात की थी नहीं सिवाय बेइज्जती के । क्योंकी अगल बगल  सब जानने वाले थे। सब अपनी तो ठाठ थी। पूरब की ओर देखते देखते कब परीक्षा का डेट आ गया पता ही नही चला। कल परीक्षा थी आज हम फिर सुबह से तीन बजे का इंतजार कर रहे थे। तीन बजा फिर छत पर पढ़ने के लिए चले गए। कुछ देर तक पढ़े। संसद में महिला आरक्षण और मीडिया में जनगणना में जाति का नाम शामिल करने पर पर बड़ी गहमा गहमी थी।  पढ़ाई शुरू करते ही हमने इन मुद्दों पर बहस शुरू कर दी थी। अब जब बहस शुरू हो गया तो पढ़ाई कहां होनी थी। थोड़ी देर बहस में गहमा थी, फिर आ गए अपनी लाइन पर, जो वो...छत पर आ गई थी। बैट बॉल शुरू हो गई, खेलते खेलते सूरज ढल गया...और दूसरे दिन एग्जाम था। तीस जुलाई को रिज्लट आया और हम पास हो गए