रविवार, 26 जून 2011

भीड़ तंत्र का न्याय

भीड़ कई तरह की होती है, और उन सबका न्याय भी अलग होता है।लेकिन हम यहां बात उस भीड़ की करेंगे जिसका कोई भूतकालिक मुद्दा नहीं होता वह कुछ पल के लिये एकत्रित होती हैं।और उसके बाद वह तुरन्त अपना फैसला सुना कर रफ़ा हो जाती है। वह एक ऐसी भीड़ होती है, जिसको अपने किये का परिणाम भी पता नहीं होता ..उसे उस समय जो अच्छा लगता है वह फैसला सुना देती हैं और उस जगह से दफा हो जाती है..क्योंकि उस भीड़ की कोई जिम्मेदारी तय नहीं हो पाती है न ही वह अपनी कोई जिम्मेदारी तय करना चाहती हैं। हांलाकि तमाम भीडे़ सार्थक कामों के लिये भी एकत्रित होती है कई भीडे़ बस, भीड़ इक्कठा करने के लिये ही एकत्रित होती है। पर जिस भीड़ की हम बात कर रहे है उसमे न संवेदना होती हैं। न ही मानवता होती हैं, क्या इस तरह की भीड़ की भी हमें जरुरत हैं? यह प्रश्न विचारणीय हैं। गुडगांव के एक हादसे की बात करेंगे जहां पर न ही मानवता दिखी नही संवेदना दिखी। क्या एक सभ्य मानव समाज गुडगांव जैसे उस हादसे की उम्मीद कर सकता हैं जहॉ एक व्यक्ति को जिंदा जलाया जाए और भीड़ तमाशाबीन होकर देखती रहे। यहॉ बात केवल भीड़ के तमाशाबीन होकर देखने की नहीं हैं पर जो सबसे गम्भीर बात हैं , वह ये हैं की उस व्यक्ति को केवल इसलिये जला दिया गया की वह इंसान एक ग्राम प्रधान की मौत का जिम्मेदार था। उस व्यक्ति ने एक ग्राम प्रधान को किसी आपसी रंजीस के कारण मौत के घाट उतार दिया। मौके पर उपस्थित भीड़ उस व्यक्ति के असभ्य कामो के बदले जो इंसाफ किया वो उससे कही ज्यादा असभ्य असंवेदनशील और अमानवीय था। क्या उस भीड़ ने ये जानने की कोशिश की कि आखिर उस इंसान ने उस ग्राम प्रधान का कत्ल क्यों किया ,नही ,नही की जानने की कोशिश। पर क्या आज हमारे सभ्य मानवीय समाज को यह सवाल नहीं उठाना चाहीये की, कि क्या मौत के बदले मौत ही एक मात्र सजा होनी चाहिये। इस तरह की घटना कोई एक नहीं हैं बल्की हमारे समाज में ऐसी घटनाओ की एक लम्बी फेहरिस्त हैं। साल भर पहले ही मिर्चपुर में जो की हरियाणा में हैं एक ऐसी घटना हुयी जहॉ कुछ दबंग लोगो ने मिलकर निर्बल लोगो को जिंदा जलाया ही नहीं बल्कि उनके घरो में भी आग लगा दी। आये दिन ये भी सुनने में आता हैं की उँचे जाति के लोगो ने दलितो को निर्वस्त्र कर सिर मुडवा कर गदहे पर घुमाया । .पढ़ने लिखने में एक बार के लिये झिझक जरुर पैदा कर सकते हैं। आपके मन को उद्वेलित कर सकते हैं पर हकी़कत में ये हमारे समाज की सच्चाई हैं ,जिससे हम मुंह नही मोड़ सकते हैं। आखिर हमारा समाज इतना असंवेदनशील क्यों हो चुका हैं। क्या हम अपने स्वाभिमान के लिये ये सब करते हैं या बदले की भावना से ये हमारा अमानवीय कृत प्रेरित होता हैं पर जो भी हो एक मानवीय सभ्य समाज की निशानी ये तो कतई नही हो ,सकती। ऐसा नहीं हैं की भीड़ हमेशा ही गलत काम करती हैं, पर हमें ऐसी भीड़ भी नही चाहिये जो बिना सोचे समझे अपने फैसले देने को व्यकुल रहती हो । तहरीर चौक की भीड को हम एक आदर्श भीड़ कह सकते हैं । अन्ना हजारे की भीड़ को हम एक आदर्श भीड़ कह सकते हैं ..दरअसल होता क्या हैं कि पूर्वनियोजित और आदर्श उद्देश्य के साथ उपस्थित हुय़ी भीड़ का लक्ष्य भी आदर्श होता हैं । पर भीड के अन्दर वह ताकत होती हैं जो बडी से बडी बुराइओ को अव्यवस्थाओ को उखाड़ फेकत देती हैं । ड़ांडी यात्रा के लिये भीड़ एकत्रित होती है तो अंग्रजो का नमक कानून तोड़ देती हैं। रामलीला में जेपी की भीड जुटती है तो देश में आपातकाल लागू होता जा बदले में लोगो को उस समय की हिट बाँबी दिखाई जाती हैं । सभ्य हिन्दुस्तान की जनता अब ये उम्मीद करना चाहेगी की एक सशक्त और आधुनिक बनते भारत में अब भीड़ मिर्चपुर और गुडगांव में हुये अमानवीय कृत्य जैसे उद्देशयो के लिये न जुटे , ब्लकि अब भारत में भीड़ मिलजुलकर भारत को और आगे ले जाने के लिये जुटे।

मंगलवार, 21 जून 2011

इस सफर का हमसफर कौन....

आपको एक ऐसा सफर करना हो जिसमे आपको ये पता ही न हो की आपको कब किस तरह के मोड़ मिल जाये कब कहॉ आपको आपकी मंजिल मिल जाये ..या कब आपको रास्ते में ठोकर मिल जाये ....और आप गिर जाये जहाँ आपको कोई उठाने वाला तक न.हो देर तक घिघियाते रहे ..गिडगिडाते रहे ......कराहते रहे कोई पूछने वाला तक न हो   तो आप क्या करेंगे ...जनाब कुछ नहीं कर सकते...बस कराहते रह सकते हैं..हम गिडगिडाते रह जायेगें ...बहुत हो सके तो दो चार आंसू बहा लेगें अपनी बदकिस्मती पर...अरे दोस्त इससे ज्यादा... अपने बस की कुछ हैं भी तो नही .वाकई में अगर जिंदगी आपको इस तरह बितानी हो जहॉ पल पल आपको ये सोचना हो की ..अगले घंटे कुछ भी हो सकती  हैं... ऐसे हालात में बढ़ा मजा भी आता हैं...पर बढ़ा दर्द भी होता ...लेकिन दर्द पता हैं क्यों होता हैं..क्योकि हम दूसरो को देखते की यार वो.. तो ......
लेकिन ऐसे जिंदगी का मज़ा ही कुछ अलग होता हैं जो बहुत कम लोगो को  मिलता हैं.... पर जिसे मिलता उससे पूछना ये मज़ा ...क्या लाजवाब होता हैं....लिखते हुये मुझे ये यकीन हो रहा हैं..मेरे भी जिंदगी का फलसफा भी कुछ इसी तरह का हैं...हर एक दिन को गुजारने के बाद दुसरे दिन के लिये संर्घष शुरु हो जाता हैं...लेकिन एक बात देखिये की ये पिछले 6 सालो से लगातार चल रहा हैं ..कभी कभी तो बढ़ा बवंढर भी आ जाता हैं..लेकिन एक बात मेरे साथ रहा हैं की ...की अंतिम मोड़ पर कोइ न कोई न कोई ऐसा मिल जाता हैं जो मुझे गर्दिश में जाने बचा लेता हैं...पर वो ज्यादा दूर तक मेरे साथ नहीं चलता कुछ दूर चलने के बाद वह व्यक्ति मेरा साथ छोड़ देता हैं....आज से 6 साल पहले जब मैं दिल्ली आया तो कुछ लोगो ने साथ दिया ..सफर आगे बढ़ता गया कुछ और लोगो ने साथ दिया...स्कूल से ग्रेजुएशन कर लिया ..पर इस सफर के दौरान अधिकरतर लोगो ने जिसने मेरा साथ दिया उसका मेरे साथ कोई न कोई स्वार्थ जुड़ा था...पर उनके स्वार्थ के साथ मेरा भी काम पूरा होता गया ...उन मुश्किलो से निकले तो दूसरी  मुश्किले हमारा हमसफर बन....जाती थी जब जब परेशान हो जाते थे तो भरी दुपहरी में काँल सेंटर में नौकरी के निये निकल पड़ते थे ...एक बार नहीं कई बार ऐसा हुआ ..हर बार मुंह लटकाकर रुम पर चले आते थे..पता हैं क्यूं ..अंग्रेजी नहीं  आती  थी ..कहीं पर जाते थे तो कहता की तुम्हारी उम्र 18 नहीं हुयी हैं....पर कोई हमारी समस्याये सुनने को तैयार नहीं होता था.....कभी बच्चो को ट्यूशन पढा़ लिया करते थे लेकिन उससे रुम का रेंट तक नही  निकलता था....बीती कहानियाँ इतनी अच्छी हैं की एक फिल्मकार अपनी फिल्म पूरी कर सकता हैं....चलिये अब छोडि़ये उन बातो को  वर्तमान सफर की बात कर लेते हैं...आज से साल भर पहले जब ग्रेजुएशन पूरा हुआ तो विकल्प था.. कि  कॉल सेंटर में जॉब कर लेते हैं.. साथ ही साथ ओपन से  एम.ए कर लेगें..क्योकि पढ़ने के लिये वक्त था पर फीस जमा करने के लिये पैसे नही थे...मेरे दोस्तो ने काहा की जर्नलिज्म कर ले .बस जामिया में गया फार्म भर दिया ....मेहनत किया ..प्रवेश परीक्षा पास कर गया पर ..फीस था ..पूरे ..28000 हजार रुपये.जो 1995 से मेरे घर में कभी आया ही नहीं...पढ़ने का मूड बिल्कुल नहीं था ...हर बार की तरह अंतिम समय में एक हमसफर मिला..मेरे नाउम्मीदो पर एक उम्मीद लेकर आया और कहॉ कि नहीं तूझे जामिया में एडमिशन लेना होगा ..जितना भी फीस होगा मैं दूगां......
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और उसकी वजह से आज मैं कुछ शब्दो को लिखने काबिल हो बन सका हूं...

रविवार, 12 जून 2011

मेरी जीवन यात्रा: डीयू से देहरादून

मेरी जीवन यात्रा: डीयू से देहरादून: "उन दिनों खिलती थी हिमालय की गोद में वो फिज़ाये उड़ते थे बादल और पकड़ती थी हमारी बाहें चारो तरफ कलकलाते थे नीर और उन्हे देखती थी हमारी न..."