मंगलवार, 13 नवंबर 2012

ट्रेनों के जनरल डिब्बों में वेंडरों और पुलिस की अराजकता

दिल्ली के आनंद विहार टर्मिनल से बिहार सप्त क्रांति सुपर फास्ट दोपहर के 2.55 मिनट पर प्लेट फॉर्म नंबर एक से बिहार के मुजफ्फरपुर के लिए रवाना हो गई। मुझे उस दिन (31 अक्टूबर को ) अचनाक अपने घर गोरखपुर निकला था, सो मैं जनरल का टिकट लेकर ट्रेन के सबसे पीछे लगे जनरल डिब्बे के दूसरी बोगी मैं बैठ गया। हर बोगी में एक सीट रेलवे के रसोईयों ( कटैगरिंग सुविधा- 'खाने पीने सुविधा' उपलब्ध कराने वालों के लिए आरक्षित होता है)। अपने करीब 13 घंटे के यात्रा के दौरान मैंने भ्रष्टाचार, दलाली, और अराजकता के कुछ ऐसे दृश्य देखें उन दृश्यों का शब्दों में वर्णन है ये लेख। ट्रेन के जनरल बोगी में अपने निर्धारित सीट पर खान-पान का डिब्बा रखते ही लक्ष्मी शाह और उसका साथी कहते है ये आगे पीछे का तीन सीट खाली कर दों। तुरंत खाली करों, नहीं तो सबकों सौ-सौं रुपए देने होंगे। और साथ में खाना-पीना भी होगा। थोड़ी देर में उसने अपने आगे-पीछे की तीन सीटे तीन लोगों को सौ-सौ रुपए में बेच दी। जबकि उनके पास टिकट भी था। एक आदमी जिसके पास टिकट नहीं था और उसे मुजफ्फरपुर जाना था, उसे उसने 500 सौ रुपए में सीट बेचीं। मिलीभगत का कमाल देखिए सप्त क्रांति मुरादाबाद से होकर लखनऊ जाती है, आनंद बिहार टर्मिनल से प्रस्थान करने के बाद मुरादाबाद के करीब टीटी उस बोगी में टिकट चेक करने आए। उस समय वेंडर भी वहीं पर बैठा था। वेंडर के सीट के पास दो लोग मुजफ्फरपुर जाने के लिए बैठे थे, जिनमें से केवल एक के पास ही टिकट था। टीटी ने दोनों से पूछा कहां जाओंगे ,टिकट दिखाओं उन यात्रियों के बोलने से पहले ही वेंडर बोला, एक मुरादाबाद जाएगा (जिसके पास टिकट नहीं था, और दूसरा मुजफ्फरपुर जाएगा)। फिर टीटी पूछा इसका टिकट ,,,अरे सर स्टाफ है। टीटी चला गया। थोड़ी देर बाद टीटी थोड़ी देर बाद ट्रेन में सामान बेचने वाले को हमारी बोगी में भेजा, और उससे कहा कि वेंडर से पानी लेकर आना, वो आदमी वेंडर से पानी लेकर गया। बिना पैसे के। अब वेंडर कहता है आप लोग देखिए हमें भी यहां बहुत कुछ गवाना होता है, अगर मै आपसे इस सीट के बदले पैसे नहीं लूंगा तो इनकों पानी कहां से मुफ्त में पिलाऊंगा, अभी तो ये शुरूआत है मुजफ्फपुर तक कई बोतल पानी और खाना मुफ्त में ये लोग खाते है, कहां से लाऊंगा इतना माल। इसीलिए इन सीटों पर हम लोगों को बिठा कर पैसे लेते है। रात के 9 बजे ट्रेन के प्रस्थान करने के बाद ही वेंडरों ने शराब पीना शुरू कर दिया। करीब तीन बोतल शराब पीने के बाद वो चिल्ला चिल्लाकर कह रहा था मेरे बोगी में जितने लोग बैठ है.. ध्यान से सुन लिजीए.. सबकों खाना खाना होगा। अपने सामने वाले सीट पर बैठे यात्री से वेंडर कहता है, देखिए मेरा तो वसूल है, मेरे बोगी में जो बैठता है उसे खाना खाना ही पड़ता है। और देखिए, इधर तो हम खाना खिलाने का ही पैसा लेते है, लेकिन जब बिहार से ये ट्रेन लौटती है, तो सबसे 100-100 रुपए जबरदस्ती लेते है, और तभी अपनी बोगी में बैठने देते है। ये सभी बाते वेंडर खुद कह रहा था। शराब का नसा चढ़ने के बाद वेंडर का होश खो गया, लखनऊ स्टेशन आने के पहले करीब 8 बजकर 50 मिनट पर वो उठा, और कहा हां भईया खाने के लिए तैयार हो जाइए। अब वो अपने हाथ में खाना लेकर सबको जबरन देने लगा, ठीक उसके ही रो में मैं उपर की सीट पर बैठा था। नीचे के सभी लोगों को जबरन खाना देने के बाद उपर खाने का प्लेट बढ़ाया। सबसे पहले उसने मुझे दिया, मैंने उसका खाना खाने से मना कर दिया। मैने वेंडर से कहा मैं अपने घर से खाना लेकर आया हूं, मुझे खाना नहीं चाहिए। उसने कहा नहीं खाना खाना हीं पड़ेगा, मैंने वेंडर से कहा मुझे नहीं खाना जबरन खिलाओगे क्या? फिर उसने मेरे कान में कहा बाबूजी ये खाने का प्लेट रख लीजिए आप नहीं लेंगे तो कोई भी नहीं लेगा क्योंकि मैने उपर खाना देने की शुरूआत आपसे ही की है। फिर मैने उससे कहा नहीं चाहिए मुझे खाना, और सब लेंगे या नहीं लेंगे इसकी जिम्मेदारी मेरी है क्या, जिसे खाना होगा वो खाएगा, जिसे नहीं खाना होगा वो नहीं खाएगा, तुम जबरन खाना तो नहीं खिला सकते न, मैंने वेंडर से कहा। फिर वो कहता है बाबूजी आप मेरे पेट पर लात मार रहे है, मैंने कहा ऐ कैसी बात कर रहे हो, इसमें लात मारने की क्या बात है, नौकरी करते हो, जितना बिकेगा उतना बेचों। नहीं बिकेगा वापस कर देना। ( दरअसल उन्हे पर डिब्बा बेचने पर कमीशन मिलता है जिससे वो लोगों को जबरन खाना खिलाकर उल्टा सीधा पैसा लेते है)। मैने जब डिब्बा लेने से इनकार कर दिया तो उसने मेरे बगल में बैठे बुजुर्ग आदमी को डिब्बा पकड़ाया, उसने कहा मुझे नहीं खाना मेरे पास खाना है, वेंडर ने उससे कहा क्यों नहीं खाएगा, चल पकड़ ये डिब्बा, नहीं तो भाग जा इस बोगी से, मेरे कहे मुताबिक उस बुजुर्ग व्यक्ति ने हिम्मत बांधा और वेंडर का खाना खाने से इनकार कर दिया। फिर एक के बाद एक आठ लोगों ने जो मेरे साथ उपर की सीट पर बैठे थे। खाना खाने से इनकार दिए। अब वेंडर आगबबूला होकर मेरे से कहता है ये आपने अच्छा नहीं किया...आपके कारण इन लोगों ने खाना नहीं लिया। आपकों देख लूंगा मैं। इतना कहकर वेंडर दूसरी सीट पर चला गया। जबरदस्ती की हद पूरे बोगी में उसने हमारी सीट को छोड़कर सभी को जबरन खाना खिलाया। कई बुजुर्ग व्यक्ति को जो खाना लेने से मना कर रहे थे, उनको थप्पड़ मारकर जबरन खाना दिया। और पैसे उसूल किया। लखनऊ स्टेशन पर रिश्वत की मिलीभगत लखनऊ स्टेशन पर ट्रेन करीब 20 मिनट रूकती है। ट्रेन रूकने पर मैं थोड़ी देर के लिए ट्रेन से नीचे उतर गया। और यहां पर जो दृश्य देखा वो दंग कर देने वाला था। दरअसल यहां से वेंडर अपना खाना बेचकर अपने कैंटिन वाली बोगी में सोने चले जाते है। मै अपने बोगी से नीचे उतकर थोड़ी दूर पर ही खड़ा था। तभी देखा की दो पुलिस वाले ( हृद्य नारायण दुबे 'वर्दी पर एक स्टार लगा हुआ', और दूसरा उनके साथ बृजलाल नाम का पुलिस वाला था) हमारे बोगी में झांक रहे थे, तभी वेंडर दौड़ कर उन पुलिस वालो के पास आया । और पुलिस उन पुलिस वाले से कहता है, सर जी नमस्कार, इसी बोगी में जाना है क्या, पुलिस वाले ने कहा कि नहीं इसमें नहीं जाना बता क्या बात है। वेंडर बोला अरे सर एक अपना ही भाई बैठा है उसके पास टिकट नहीं है... थोड़ा देख लीजिएगा। हृद्य नारायण दुबे अपने दूसरे पुलिस साथी से कह रहा है कि ..अरे ये लोग चार पांच लोगों को पैस लेकर सीट पर बिठाते है। अरे बहुत कमाते है ये लोग। फिर वेंडर पुलिस वालों से कहता है अरे माई-बाप कहां ..आज तो देख रहे है.. पूरी बोगी ही खाली है। खाना भी नहीं बिका, क्या बताऊं काफी दिनों बाद आज बहुत बुरा हाल है। पुलिस वाला कहता है अरे...साले तुम लोग बहुत चालबाज आदमी हो। इसके बाद वेंडर पुलिस वालो से थोड़ी दूर जाकर अपने जेब से एक सौ रूपए का नोट निकालता है, और उनके पास आकर बृजलाल नाम के पुलिस वाले के जेब वो सौ का नोट रख देता है। और उनसे कहता है सर थोड़ा देख लीजिएगा उसे कोई दिक्कत न हो। फिर पुलिस वाला कहता है अरे हम तुमसे कुछ कह रहे है, जाओं निश्चिंत रहो।

शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2012

सम्मेलनों में फंसा जैव विविधता संरक्षण

हम जैव विविधता संरक्षण के लिए 60 मिलियन डॉलर देने की घोषणा करते है, हमें ये बताते हुए खुशी है कि हमारी सरकार ने जैव विविधता को बचाने के लिए कई सारे उपाय किए है...जिसमें मनरेगा जैसी योजनाएं प्रमुख है...भारत के प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह ने ये बातें अक्टूबर 2012 में हैदराबाद में आयोजित विश्व जैवविविधता सम्मेलन में कही थीं । दुर्भाग्य से बायोडायवर्सिटी में सबसे ज्यादा संपन्न हमारे देश में तमाम नृजातीय प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर है। इसे आप आधुनिकता की हवस कहे या प्रकृति की मार, जिस समय हैदराबाद में विश्व समुदाय जैव विविधता को बचाने की खातिर माथापच्ची कर रहा था, उसी समय असम के काजीरंगा नेशनल पार्क में कई गैंडे और पशु-पक्षी प्राकृतिक आपदा के साथ-साथ शिकारियों के शिकार हो गए। इसे विडंबना कहे या परंपरा.... भारत की पर्यावरण मंत्री जयंती नटराजन ने काजीरंगा में आए प्राकृतिक आपदा से निपटने के लिए सिर्फ एक करोड़ रुपए देकर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ली....बिना किसी दूरदर्शी नीति और योजना के इसी तरह सरकार करोड़ों रूपए लुटा देती है..... लेकिन ये कोशिश जैव विविधता को बचाने के लिए नाकाफी साबित हो रही है...... हैदराबाद में जैवविविधता सम्मेलन एक ऐसे समय आयोजित किया गया , जब दुनियाभर की जैविक प्रजातियों के अस्तित्व पर संकट मंडरा रहा है....लेकिन इस बाजारू दुनिया का प्रकृति के प्रति नजरिया देखिए.... यहां भी कार्पोरेट जगत की तरह केवल पैसे जुटाने की चर्चा हुई...जिसे तमाम गैर सरकारी संगठन, औऱ दुनियाभर की सरकारों के रहनुमा मिलकर लूट सकें। आधुनिकीकरण की शुरूआत से ही इंसानों ने प्रकृति के उपर बहुत जुर्म ढाए हैं.....और धीरे धीरे करके आज जब हालात बेकाबू हो चुके हैं तो फिर उसे बचाने के लिए दुनियाभर के पर्यावरणविद और सामाजिक संगठन सम्मेंलनों की रस्म अदायगी करके अपनी चिंता जाहिर कर रहे हैं...अगर इस संकट पर नजर डालें तो...धरती से खत्म हो रही प्रजातियों में 41 फीसदी उभयचर, 33 फीसदी प्रवाल, 25 फीसदी स्तनपायी, 13 फीसदी पक्षी और 23 फीसदी कोनफर वृक्ष हैं....बात अगर भारत के परिप्रेक्ष्य में करें तो, यहां की कुल आबादी लगभग एक अरब बीस करोड़ है, ...जो कि विश्व जनसंख्या का लगभग 18 फ़ीसदी है... इस देश में इंसान और वन्य-जन जीवन के लिए विश्व भूमि का 2.4 हिस्सा ही उपलब्ध है... इस स्थिति में दोनों के बीच संघर्ष होना लाजिमी ही है... और ज़ाहिर है कि इस लड़ाई में कहीं ना कहीं तात्कालिक जीत इंसानों को ही मिल रही है....हालांकि ये भी उतना ही सही है कि इसके बिना लंबे समय तक इंसानी जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती...पिछले दशक में भारत ने कम से कम पांच दुर्लभ जानवर लुप्त होते देखे हैं... इनमें इंडियन चीता, छोटे क़द का गैंडा, गुलाबी सिर वाली बत्तख़, जंगली उल्लू और हिमालयन बटेर शामिल है.. हालांकि देखा जाए तो भारत ने अपने जैव विविधता को बचाने के लिए कोशिश जरूर की है...सरकार ने देश का लगभग 5 फिसदी भौगोलिक हिस्से को सुरक्षित क्षेत्र में रखा है...बाघों की विलुप्ति होती संख्या पर तमाम समाजिक संगठन और पर्यावरणविद् जब सामने आए , तब सरकार ने कई योजनाओं के साथ लोगों में जागरुकता भी लाया...परिणामस्वरूप जहां 2006 में सिर्फ़ 1411 बांघ थे, वहीं 2011 में देश भर में 1706 वयस्क बाघ गिने गए थे।...पर्यावरण मंत्रालय के अनुसार भारत इस समय जैव विविधता पर दो अरब डॉलर ख़र्च कर रहा है...परंतु ये तमाम योजनाएं बिना किसी दूरदर्शी नीति के खोखली साबित हो रही है... विश्व समुदाय की तमाम कोशिशों के बावजूद इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंज़र्वेशन ऑफ़ नेचर ने चेताया है कि इस समय करीब 1 हजार दुर्लभ प्रजातियां ख़तरे में हैं... जबकि 2004 में यह संख्या केवल 650 थी...विश्व धरोहर को गंवाने वाले देशों की शर्मनाक सूची में भारत चीन से ठीक बाद सातवें स्थान पर है...जानकारियों के मुताबिक, 5,490 स्तनधारी प्रजातियों में से हर पांचवीं प्रजाति लगभग विलुप्त होने के कगार पर हैं। जाहिर है, हमारी कोशिशों में चूक हो रही है। ...और अगर जल्द ही कड़े कदम नहीं उठाये गये तो इसके गंभीर परिणाम देखने को मिलेंगे

गुरुवार, 25 अक्तूबर 2012

हिम्मत

पंकज की तबीयत रात से बहुत ख़राब है। देर रात काम करके आया था। सुबह सोकर जल्दी उठा। कुछ देर तक सोचता रहा की डॉक्टर के पास जाऊं या ड्यूटी पर जाऊं। काफी देर तक सोचने के बाद वो निर्णय लिया की डॉक्टर के पास जाऊंगा। पंकज अपने कमरे से निकला, गली की सीध वाले रास्ते के सामने ही मेन सड़क थी। रोड पारकर हल्की सी सांस लेते हुए वो बस स्टैंड पर बैठ गया। अस्पताल जा रहूं कहीं ज्यादा तबीयत न खराब हो जाए, बड़ी बीमारी निकल गई तो क्या करूंगा। घर में दो छोटे बच्चें है। बस स्टैंड पर बैठकर पंकज ये तमाम बाते अपने मन में सोचने लगा। तभी बस आई वो बैठ गया। अस्पताल पहुंचने के बाद उसने डॉक्टर से चेकअप करवाया। पंकज अभी फिलहाल ये दवाएं ले लो, तुम कल फिर आ जाना, डॉक्टर ने पंकज से कहा। अस्पताल से निकले के बाद दोपहर के दो बज गए थे। पंकज बिना कुछ खाएं पिए अपने फैक्ट्री लेदर की फैक्ट्री में वो काम करता था। दवाएं खाने के बाद उसकी तबीयत थोड़ी ठीक थी। उसने फिर रात के दो बजे तक काम किया और अपने कमरे पर आ गया। सुबह उसे जल्दी उठना था। और अस्पताल जाना था। लेकिन रिपोर्ट की चिंताओं ने रात भर उसके नींद में खलल डाला। सोचते-सोचते सुबह हो गया। पंकज फिर तैयार होकर अस्पताल चला गया। मरीजों की लाइन में उसका नंबर चौथा था। कुछ देर बाद डॉक्टर ने पंकज को बुलाया। अंदर से डरा सहमा पंकज डॉक्टर के केबिन में जाकर खड़ा था। अरे बैठ जाओ इतने डरे क्यों हो, डॉक्टर ने पंकज से कहा। पंकज बैठ गया। डॉक्टर ने पंकज से पूछा क्या काम करते हो, पंकज ने कहा ललल लेदर की फैक्ट्री में काम करता हूं। क्या बहुत ज्यादा काम करना पड़ता है। अबकि बार पंकज डर गया। कुछ नहीं बोला। ....फिर डॉक्टर ने कहा पंकज तुम्हे ब्लड कैंसर हो गया है। थैलेसिमीयां। काटों तो खून नहीं ऐसी हालत हो गई पंकज की। उसे अपेन उपर विश्वास नहीं हुआ उसने फिर डॉक्टर से पूछा, सर मुझे क्या हो गया है। पंकज तुम्हे ब्लड कैंसर हो गया है, डॉक्टर ने पंकज कि ओर देखते हुए कहा। पंकज की ऑखों में आसू थे। उसने डॉक्टर कहा कि सर अब क्या कर सकता हूं। नाउम्मीद भरी सांत्वना देते हुए डॉक्टर ने पंकज से कहा चिंता मत करों इलाज होगा ठीक हो जाएगा। एक तरह से डॉक्टर की उस कुर्सी पर बैठे-बैठे पंकज बेहोश सा हो गया था। उसे सूझ नहीं रहा था कि वो करे तो क्या करे। दिवाल के सहारे एक अब एक नई जिंदगी जीने को सोचते हुए वो खड़ा हुआ। पंकज तुम चिंता करों कुछ पैसे लगेंगे भर्ती हो जाओं इलाज होगा ठीक हो जाओगे। डॉक्टर पंकज तो इस तरह से सांत्वना दे रहे थे, जैसे कोई मुरझाएं फूल को कह रहा हो कि तुम फिर जेठ की लिली की तरह खिल उठोगे। पंकज ठहरा एक मज़दूर आदमी उसको अभी महीने की तनख्वाह भी नहीं मिली थी। दूसरे वो दिल्ली के गोविंदपुरी में एक किराए की मकान में रहता था। बेचारे के पास अस्पताल में भर्ती होने के लिए पैसा नहीं था। वो अस्पताल से घर से चला आया। दूसरा कोई उपाय भी नहीं था उसके पास, हमारे देश में जो पहले पैसा दो फिर इलाज लो का संद्धांत है। क्योंकि उसकी पर्ची पहले कटनी थी। फिर जाकर वो कही अस्पताल में भर्ती हो पाता। सूरज ढल रहा था, शाम के करीब साढे छह बज रहे थे। छत पर बैठे बैठे वो तमाम सारी बाते सोचने लगा। इलाज कहां से होगा इस बारे में नहीं , बल्कि इस बारे में कि उसे दो बच्चे है, पत्नि है, दोनों बच्चे अभी छोटे है, बड़ा वाला करीब आठ साल का है, और दूसरा करीब पांच साल का। उसका पूरा परिवार गावं में रहता है और दिल्ली शहर में अकेला। मै नहीं रहा तो मेरे भाई ज़मीन हड़प लेगे, बीवी बच्चे कहां रहेंगे। पंकज ये तमाम सारी बात सोचने लगा। रात अंधेरा हो चुका था, सर्दी का महिना था। ओस गिरना शुरू हो गया था। अब वो छत से नीचे चला आया। काफी देर तक सोचना लगा क्या बना कर खाऊं, सुबह से पंकज कुछ खाया नहीं था, उसके कमरे में आटा और चावल तो था। लेकिन सब्जी नहीं थी, सब्जी के लिए बाजार जाना पड़ता। एक तो पहले से ही उसकी तबियत खराब, मन मारकर पंकज बाजार नहीं गया। स्टोव जलाया और तीन रोटी बनाई, थोड़ी देर बाद प्याज और नमक के साथ रोटी खा लिया। नींद तो आ नहीं रही थी। कैसे-कैसे बेचारा फर्श पर चद्दर बिछाकर लेट गया। रात भर सो नहीं पाया। कभी उठकर बैठ जाता, तो कभी फिर सो जाता था। रात भर यही करते करते सुबह हो गई। सुबह के नौ बज चुक है, उसे काम पर जाना है। लेकिन पंकज जब ये सुना है कि उसे कैंसर है, उसकी तबियत मानसिक रूप से पहले ज्यादा ख़राब हो गई है। अब वो हर वक्त काम करते हुए कराहता रहता है। घर में उसकी कोई बड़ी आमदनी नहीं है जिससे वो घर से पैसे मंगाकर अपना इलाज करवा सके। पंकज के तीन भाई है तीनों उसकी शादी के बाद से ही अलग रहते है । मतलब अब उसे अपने दोनों बच्चों और बीवी के साथ उसे अपने इलाज का भी खर्च उठाना है। कहानी जारी है...