सुबह सो कर उठते ही इस बात का इंतजार रहता था कि कब तीन बजे। पत्रकारिता की प्रवेश परीक्षा के लिए तैयारी जो करनी थी। एक ही खटिया थी। तीन बजे के बाद सूरज थोड़ा पश्चिम हो जाता था। दीवार के किनारे छांव हो जाती थी। कौन खटिया के पश्चिम में बैठेगा और कौन पूरब इस बात की लड़ाई उजाले से सूरज के ढलने तक होती थी। थोड़े से छांव में रखे खटिया पर अक्सर ब्लू क लर का चादर बिछा देते थे। दोनों दिशाओं में बैठने की हड़बोड़ में बिछे चादर का पता भी नहीं चलता था। पूरब की ओर मुंह करके बैठना फायदेमंद था। इसीलिए हर वक्त इसी की लड़ाई होती थी। एक बैट बॉल भी थी। उसमें भी झंझट ही था। अधिकतर हम आपस में क्रिकेट खेलते वक्त सोचते है कि सबसे ज्यादा बैंटिग मिले। लेकिन उस समय हम दोनों को बॉलिग करना ज्यादा फायदेमंद था। क्योंकि देखना पूरब ही था। हां बैट बड़ा अजीब था, छत पर एक लकड़ी का पटरा था, उसे बैट बना लिया था। उसे छिपाना भी था तो दीवारों के किनारों ही खेलते थे कि दूसरे को दिख न पाए कि हम पटरी से खेल रहे है। मै या अभिमन्यु में इस बात की होड़ लगी रहती थी बॉल हम फेकेंगे हम फेकेंगे। इसीलिए पूरब की ओर मूह करके बॉ फेकना होता था, जहां वो डेली पूरब में उस छत पर तीन बजे के बाद आ जाती थी, बॉल फेंकते फेंकते दीवार के उस पार भी चली जाती थी, पर अफसोस नहीं रहता क्योंकि दो रूपए वाली बाल रहती थी। न ज्यादा उड़ती थी न ज्यादा कूदती थी। दो छतों को पार कर तीसरे छत पर वो पिछले एक महीने से डेली आ जाती थी। पता नहीं कैसा एक अनजाना सा मूक लगाव हो गया था उससे। कभी कभी आवाज भी केवल उसी छत से आ जाती थी। पर हमारे छत से 'बर्फी' जैसी प्रतिक्रिया ही होती थी। क्योंकि हम दोनों ठहरे फट्टू आदमी। दुनिया भर की समाचार पत्रों की कतरन काटकर इक्कठा कर लिए थे। पढ़ते एक नहीं अगर पढ़ने बैठ गए तो उन कतरनों की लाइनों से इतना मतभेद की बहस में घंटा बीत जाता था। पिछले करीब पंद्रह दिन से यही सिलसिला जारी था। दिन से सूरज के लालिमा तक पढ़ाई करके थक जाते थे। तो फिर एक दो किलोमीटर की सैर करके आ जाते थे। उसके बाद खाना बनाते और खाकर सो जाते । सोने के बाद भी अगले सूर्योदय के तीन बजे का इंतजार रहता था।जामिया से पत्रकारिता की पढ़ाई करनी थी। शौक मित्र महोदय अभिमन्यु साहब ने लाई थी। हुजूर का फरमान था की करेंगे तो जर्नलिज्म ही करेंगे। अब जामिया से पढ़ने के लिए एंट्रेंस एग्जाम पास करना तो जरूरी था न , तो महीने भर से पढ़ाई शुरू कर दी थी, उस समय बदरपुर में मै जिस मकान में रहता था उस घर में कोई था नहीं । मकान मालिक ठहरा अपना दोस्त। परवाह किसी बात की थी नहीं सिवाय बेइज्जती के । क्योंकी अगल बगल सब जानने वाले थे। सब अपनी तो ठाठ थी। पूरब की ओर देखते देखते कब परीक्षा का डेट आ गया पता ही नही चला। कल परीक्षा थी आज हम फिर सुबह से तीन बजे का इंतजार कर रहे थे। तीन बजा फिर छत पर पढ़ने के लिए चले गए। कुछ देर तक पढ़े। संसद में महिला आरक्षण और मीडिया में जनगणना में जाति का नाम शामिल करने पर पर बड़ी गहमा गहमी थी। पढ़ाई शुरू करते ही हमने इन मुद्दों पर बहस शुरू कर दी थी। अब जब बहस शुरू हो गया तो पढ़ाई कहां होनी थी। थोड़ी देर बहस में गहमा थी, फिर आ गए अपनी लाइन पर, जो वो...छत पर आ गई थी। बैट बॉल शुरू हो गई, खेलते खेलते सूरज ढल गया...और दूसरे दिन एग्जाम था। तीस जुलाई को रिज्लट आया और हम पास हो गए
गुरुवार, 11 अक्तूबर 2012
वो छत पर आई...और हम पास हो गए...
सुबह सो कर उठते ही इस बात का इंतजार रहता था कि कब तीन बजे। पत्रकारिता की प्रवेश परीक्षा के लिए तैयारी जो करनी थी। एक ही खटिया थी। तीन बजे के बाद सूरज थोड़ा पश्चिम हो जाता था। दीवार के किनारे छांव हो जाती थी। कौन खटिया के पश्चिम में बैठेगा और कौन पूरब इस बात की लड़ाई उजाले से सूरज के ढलने तक होती थी। थोड़े से छांव में रखे खटिया पर अक्सर ब्लू क लर का चादर बिछा देते थे। दोनों दिशाओं में बैठने की हड़बोड़ में बिछे चादर का पता भी नहीं चलता था। पूरब की ओर मुंह करके बैठना फायदेमंद था। इसीलिए हर वक्त इसी की लड़ाई होती थी। एक बैट बॉल भी थी। उसमें भी झंझट ही था। अधिकतर हम आपस में क्रिकेट खेलते वक्त सोचते है कि सबसे ज्यादा बैंटिग मिले। लेकिन उस समय हम दोनों को बॉलिग करना ज्यादा फायदेमंद था। क्योंकि देखना पूरब ही था। हां बैट बड़ा अजीब था, छत पर एक लकड़ी का पटरा था, उसे बैट बना लिया था। उसे छिपाना भी था तो दीवारों के किनारों ही खेलते थे कि दूसरे को दिख न पाए कि हम पटरी से खेल रहे है। मै या अभिमन्यु में इस बात की होड़ लगी रहती थी बॉल हम फेकेंगे हम फेकेंगे। इसीलिए पूरब की ओर मूह करके बॉ फेकना होता था, जहां वो डेली पूरब में उस छत पर तीन बजे के बाद आ जाती थी, बॉल फेंकते फेंकते दीवार के उस पार भी चली जाती थी, पर अफसोस नहीं रहता क्योंकि दो रूपए वाली बाल रहती थी। न ज्यादा उड़ती थी न ज्यादा कूदती थी। दो छतों को पार कर तीसरे छत पर वो पिछले एक महीने से डेली आ जाती थी। पता नहीं कैसा एक अनजाना सा मूक लगाव हो गया था उससे। कभी कभी आवाज भी केवल उसी छत से आ जाती थी। पर हमारे छत से 'बर्फी' जैसी प्रतिक्रिया ही होती थी। क्योंकि हम दोनों ठहरे फट्टू आदमी। दुनिया भर की समाचार पत्रों की कतरन काटकर इक्कठा कर लिए थे। पढ़ते एक नहीं अगर पढ़ने बैठ गए तो उन कतरनों की लाइनों से इतना मतभेद की बहस में घंटा बीत जाता था। पिछले करीब पंद्रह दिन से यही सिलसिला जारी था। दिन से सूरज के लालिमा तक पढ़ाई करके थक जाते थे। तो फिर एक दो किलोमीटर की सैर करके आ जाते थे। उसके बाद खाना बनाते और खाकर सो जाते । सोने के बाद भी अगले सूर्योदय के तीन बजे का इंतजार रहता था।जामिया से पत्रकारिता की पढ़ाई करनी थी। शौक मित्र महोदय अभिमन्यु साहब ने लाई थी। हुजूर का फरमान था की करेंगे तो जर्नलिज्म ही करेंगे। अब जामिया से पढ़ने के लिए एंट्रेंस एग्जाम पास करना तो जरूरी था न , तो महीने भर से पढ़ाई शुरू कर दी थी, उस समय बदरपुर में मै जिस मकान में रहता था उस घर में कोई था नहीं । मकान मालिक ठहरा अपना दोस्त। परवाह किसी बात की थी नहीं सिवाय बेइज्जती के । क्योंकी अगल बगल सब जानने वाले थे। सब अपनी तो ठाठ थी। पूरब की ओर देखते देखते कब परीक्षा का डेट आ गया पता ही नही चला। कल परीक्षा थी आज हम फिर सुबह से तीन बजे का इंतजार कर रहे थे। तीन बजा फिर छत पर पढ़ने के लिए चले गए। कुछ देर तक पढ़े। संसद में महिला आरक्षण और मीडिया में जनगणना में जाति का नाम शामिल करने पर पर बड़ी गहमा गहमी थी। पढ़ाई शुरू करते ही हमने इन मुद्दों पर बहस शुरू कर दी थी। अब जब बहस शुरू हो गया तो पढ़ाई कहां होनी थी। थोड़ी देर बहस में गहमा थी, फिर आ गए अपनी लाइन पर, जो वो...छत पर आ गई थी। बैट बॉल शुरू हो गई, खेलते खेलते सूरज ढल गया...और दूसरे दिन एग्जाम था। तीस जुलाई को रिज्लट आया और हम पास हो गए
रविवार, 7 अक्तूबर 2012
इंतजाम हो गया है...
सर नीचे लटकाए , कभी इधर उधर देखते आगे चले जा रहे है। मेन गेट से एंट्री करने के बाद थोड़ा दाएं मुड़े, फिर सीधे उस कमरे में चले गए। मैंन दूसरी बार और महेश पहली बार जामिया में परीक्षा देने गए थे। करीब दो घंटे का पेपर था। ज्योग्राफी का एमए का पेपर था। दिल्ली विश्वविद्यालय से भी ज्योग्राफी में ही बीए ऑनर्स किया था। वैसे परीक्षा तो दे दिए, पर दिल से कहे तो पढ़ने का मन था नहीं। इसलिए भी नहीं की प्रतिदिन अगले दिन के बारे में सोचना पड़ता था। अब ज्यादा पीछे की बात करना नहीं चाहता। परीक्षा खत्म होने के बाद मैं और मेरा दोस्त महेश, ऊर्दू विभाग के पीछे बने एक चबूतरे पर बैठ गए। महेश कहता है, यार तेरा जर्नलिज्म में हो गया तो तू एडमिशन ले लेना। मैंने कहा कि यार देखते है । फिर कहता है कि कोई दिक्कत है तो बता। मैंने कहा ननन नहीं, कोई दिक्कत नहीं है। फिर महेश कहता है देख एक साल का कोर्स है कि एमए से तो बढ़िया है। कम से कम जर्नलिज्म करने के बाद तूझे जॉब तो मिल जाएगी। तेरा खर्चा तो निकल जाएगा। मै सब बड़े ध्यान से सुन रहा था। पर कुछ बोल नहीं रहा था। फिर मेरी तरफ देखते हुए कहता है बता कोई दिक्कत है तो। फिर मैंने कहा नननन नहीं है। थोड़ी देर बाद मैंने कहा यार देख, तीस हजार के करीब फीस है, इतनी व्यवस्था हो नहीं पाएगी, और रही बात इतने पैसों की,,, तो मेरे घर में इतना पैसा एक बार में 1997 के बाद से आया ही नहीं। सोचता हूं इस साल कॉल सेंटर में नौकरी कर लूं, कुछ पैसे इक्कठे करके अगले साल आईआईएमसी में एडमिशन ले लूंगा। मैने कहा। महेश ने सर पर एक थप्पड़ मारते हुए कहा कितने पैसे कमा लेगा तूं कॉल सेंटर से। एक साल नौकरी करेगा तो कितने पैसे मिलेंगे तूझे, करीब वहीं पचास - पचपन हजार। फिर रूम का खर्चा है अपना खर्चा, दस हजार भी नहीं बचेंगे। और आईआईएमसी में एडमिशन के लिए साठ सत्तर हजार रूपए चाहिए। देख तू ऐ सब फालतू के कामों में मत पड़। कुछ व्यवस्था करते है तो तू जामिया में एडमिशन ले लेना। दरअसल मैंने अपने दोस्त अभिमन्यु के साथ जामिया में जर्नलिज्म का प्रवेश परीक्षा दिया था। और एडमिशन लेने का ख्वाब अभी परीक्षा परिणाम आने से पहले ही हम दोनों देख रहे थे। एडमिशन को लेकर दुनिया भर का रणनीति बना रहे थे। कि ऐसे पैसे का इंतजाम करेंगे वैसे करेंगे।
तीस जून को रिजल्ट भी आ गया। मै तो पास हो गया। मेरा दोस्त अभिमन्यू को वेटिंग लिस्ट में नाम आ गया। बड़ी दुविधा में फंस गए हम। मेरा तो वैसे ही जनर्लिज्म करने का मन नही था। मैने अभिमन्यू को कहा यार ऐसा कर मै अपना एडमिशन केंसल करा लूंगा और तू एडमिशन ले ले। उसका वेटिंग लिस्ट में पहला नाम था। फिर वो कहने लगा नहीं तू पढ़ेगा तभी मै पढूंगा।फिर महेश का फोन आया। क्या रहा रिजल्ट का , महेश मुझसे पूछा। मैने कहा पास तो गया पर या पढ़ना नहीं है मुझे। अबे साले बेवकूफ है क्या। महेश ने मुझे कहा। यार नहीं पर पैसे का इंतजाम नहीं हो सकता। कितनी फीस है, महेश ने मुझसे पूछा। मैने कहा यार करीब अठ्ठाइस हजार तो लग ही जाएंगें। ऐसा कर कुछ तू व्यवस्था कर और करीब बीस हजार की व्यवस्था करने की कोशिश मै करता हूं। महेश ने मुझसे कहा। फिर मैंने एक दिन बाद घर फोन किया। सीधे तो पापा से नहीं कह सकता कि एडमिशन के लिए दस-बारह हजार रुपयों की जरूरत है। क्योंकि घर की परिस्थिति समझता हूं। तोड़ा इधर उधर की बात की , फिर कहा कि पापा वो जो जामिया का एक एग्जाम दिया था न वो ...मैंने पास कर लिया है। पापा ने कहा बहुत अच्छा । किस चीज का एग्जाम था, पापा ने मुझसे पूछा। मैंने कहा पापा वो पत्रकारिता की पढ़ाई के लिए परीक्षा दिया था। क्या होगा इससे, पापा ने मुझसे पूछा। पापा इसे पढ़कर किसी टीवी चैनल या समाचार पत्र में नौकरी कर सकते है। मैंने पापा से कहा। तो बताओं पैसा वैइसा भी लगेगा का , पापा ने मुझसे पूछा। मैंने कहा पापा वो ...क्या है कि फीस तो ज्यादा है पर वो जेएनयू वाला मेरा दोस्त है न महेश ...वो... बीस हजार रूपए देने को कह रहा है। कह रहा है कि और कि कुछ तू इक्कठा कर ले। पापा ने फिर पूछा कितने रूपयों की जरुरत होगी , मैंने कहा पापा कम से कम दस हजार तो चाहिए ही। यार अभी है तो नहीं पर देखता हूं, पापा ने कहा। तीन दिन बाद पापा का फोन आया, बारह हजार का इंतजाम हो गया है भेज दूं या और चाहिए, पापा ने मुझसे पूछा । मैने कहा नहीं बस हो जाएगा। दो दिन बाद उन्होंने पंद्रह हजार रूपए मेरे एकाउंट में डाल दिए। सात जुलाई को जामिया में एडमिशन होना था। पांच को महेश का फोन आया यार पंद्रह हजार का इंतजाम हो पाया है । काम चल जाएगा। मैने कहा चल जाएगा। देखता हूं कल और इंतजाम कर देता हूं कम से कम अठ्ठारह तो कर ही देता हूं। महेश ने कहा। 6 तारीख को शाम को महेश का फोन आया , कहां है महेश ने मुझसे पूछा , घर पर ही हूं मैंने कहा। ऐसा कर मेरे घर पर आ जा कल एडमिशन के लिए यहीं से जामिया चला जाइओं। मैने अठ्ठारह हजार का इंतजाम कर दिया है।
तीस जून को रिजल्ट भी आ गया। मै तो पास हो गया। मेरा दोस्त अभिमन्यू को वेटिंग लिस्ट में नाम आ गया। बड़ी दुविधा में फंस गए हम। मेरा तो वैसे ही जनर्लिज्म करने का मन नही था। मैने अभिमन्यू को कहा यार ऐसा कर मै अपना एडमिशन केंसल करा लूंगा और तू एडमिशन ले ले। उसका वेटिंग लिस्ट में पहला नाम था। फिर वो कहने लगा नहीं तू पढ़ेगा तभी मै पढूंगा।फिर महेश का फोन आया। क्या रहा रिजल्ट का , महेश मुझसे पूछा। मैने कहा पास तो गया पर या पढ़ना नहीं है मुझे। अबे साले बेवकूफ है क्या। महेश ने मुझे कहा। यार नहीं पर पैसे का इंतजाम नहीं हो सकता। कितनी फीस है, महेश ने मुझसे पूछा। मैने कहा यार करीब अठ्ठाइस हजार तो लग ही जाएंगें। ऐसा कर कुछ तू व्यवस्था कर और करीब बीस हजार की व्यवस्था करने की कोशिश मै करता हूं। महेश ने मुझसे कहा। फिर मैंने एक दिन बाद घर फोन किया। सीधे तो पापा से नहीं कह सकता कि एडमिशन के लिए दस-बारह हजार रुपयों की जरूरत है। क्योंकि घर की परिस्थिति समझता हूं। तोड़ा इधर उधर की बात की , फिर कहा कि पापा वो जो जामिया का एक एग्जाम दिया था न वो ...मैंने पास कर लिया है। पापा ने कहा बहुत अच्छा । किस चीज का एग्जाम था, पापा ने मुझसे पूछा। मैंने कहा पापा वो पत्रकारिता की पढ़ाई के लिए परीक्षा दिया था। क्या होगा इससे, पापा ने मुझसे पूछा। पापा इसे पढ़कर किसी टीवी चैनल या समाचार पत्र में नौकरी कर सकते है। मैंने पापा से कहा। तो बताओं पैसा वैइसा भी लगेगा का , पापा ने मुझसे पूछा। मैंने कहा पापा वो ...क्या है कि फीस तो ज्यादा है पर वो जेएनयू वाला मेरा दोस्त है न महेश ...वो... बीस हजार रूपए देने को कह रहा है। कह रहा है कि और कि कुछ तू इक्कठा कर ले। पापा ने फिर पूछा कितने रूपयों की जरुरत होगी , मैंने कहा पापा कम से कम दस हजार तो चाहिए ही। यार अभी है तो नहीं पर देखता हूं, पापा ने कहा। तीन दिन बाद पापा का फोन आया, बारह हजार का इंतजाम हो गया है भेज दूं या और चाहिए, पापा ने मुझसे पूछा । मैने कहा नहीं बस हो जाएगा। दो दिन बाद उन्होंने पंद्रह हजार रूपए मेरे एकाउंट में डाल दिए। सात जुलाई को जामिया में एडमिशन होना था। पांच को महेश का फोन आया यार पंद्रह हजार का इंतजाम हो पाया है । काम चल जाएगा। मैने कहा चल जाएगा। देखता हूं कल और इंतजाम कर देता हूं कम से कम अठ्ठारह तो कर ही देता हूं। महेश ने कहा। 6 तारीख को शाम को महेश का फोन आया , कहां है महेश ने मुझसे पूछा , घर पर ही हूं मैंने कहा। ऐसा कर मेरे घर पर आ जा कल एडमिशन के लिए यहीं से जामिया चला जाइओं। मैने अठ्ठारह हजार का इंतजाम कर दिया है।
गुरुवार, 5 जुलाई 2012
समुदाय की अनदेखी, विनाश का विकास
दार्शनिकों,
और विषय के विशेषज्ञों
की नज़र में हर एक च़ीज की
परिभाषाएं अलग अलग होती है
...आम तौर पर सबसे
ज्यादा प्रभावशाली परिभाषाएं
दाशर्निकों की मानी जाती है
..लेकन एक ऐसे समाज
में जहां समाज पर सरकार नामक
संस्था का शासन होता है ..
वहां पर अधिकतर विशेषज्ञों
की ही परिभाषाओं पर अमल किया
जाता है...क्योंकि
सरकार नामक संस्था विशेषज्ञों
पर ही टिकी होती ही ..और
ये विशेषज्ञ हमेशा ऐसी रणनीति
बनाते है...जिससे
फायदा इनके ही पक्ष में होता
है...आलेख का शीर्षक
समुदाय की अनदेखी और विनाश
का विकास है...समुदाय
एक ऐसी संज्ञा जो कभी सरकार
नाम की संस्था द्वारा प्रयोग
नही किया जाता...कहने
के सरकार ने तमाम सारी योजनाएं
सविंधान संशोधन कर पंचायती
राज व्यवस्था को जन्म दिया
है ..लेकिन भ्रटाचार
के आकंठ में डूबी में इन संस्थाओं
के लिए समुदाय की कोई महत्ता
नहीं है...विकास,
वर्तमान समाज की एक
जरूरत कि वो इसके लिए अपना सब
कुछ दाव पर लगाने के तैयार
है...समाज, परिवार,
विद्यालय नाम की
संस्थाएं अब अपने वजूद से भटक
चुकी है...तो क्यों
न समुदाय का अस्तित्व ख़त्म
हो..भारतीय परिवेश
में परंपरा रही है कि समुदाय
हर एक कामों में महत्वपूर्ण
भूमिका निभाता रहा है ..लेकिऩ
वर्तमान विकास की नींव एक
सामाजिक समुदाय पर नही बल्कि
निजी समुदाय पर अधारित है
...जिसका उद्देश्य
हर वक्त शुद्ध लाभ लाभ और या
यूं कहें मुनाफ़ा कमाना है
...दरअसल समुदाय का
प्रकृति और अपने संस्कृति से
रिश्ता भावनात्मक होता है
लेकिन कॉर्पोरेट का प्रकृति
या मानव समाज से रिश्ता मुनाफ़ा
का होता है...यूपीए
सरकार में पर्यावरण मंत्री
रहे जयराम रमेश ने एक बार
उतराखंड में अपने दौरे के
दौरान कहा था..कि
सरका के अधीन आने वाले वनों
से ज्यादा बेहतर स्थिति पंचायत
के अन्दर आने वाली वनों की
है...इस बाक में कोई
अतिश्योक्ति नहीं है....क्यों
एक सामाजिक मनुष्य ये बार बार
कहता रहता है कि आदिवासियों
का जंगल सें जन्म का भावनात्मक
रिश्ता है...सबसे
बड़ी बात की क्यों आज जो भी वन
क्षेत्र बचा है वो केवल आदिवासी
बहुल इलाके में ही है..क्योंकि
समुदाय विशेष का अपने प्रकृति
से लगाव अपने पुत्र के समान
होता है ...लेकिन
वर्तमान में विकास की सीढ़ी
पर चढ़ते हुए हमने समुदाय नाम
की जो संस्था थी उसे लात मार
दिया...नतीजन
विकास व्यवहारिक नहीं बल्कि
संस्थागत हो गया...जिसका
अंतिम लक्ष्य किसी भी तरह
मनुष्य का कल्याण नहीं बल्कि
शोषण है...भारत
में आज तक समाज के विकास के
लिए ऐसी कोई योजना नहीं जिसका
आधार सामुदायिक रहा हो...योजनाएं
के नाम जरूर सामुदायिक क्योंकि
इस सरकार और नौकरशाही को इस
संस्था की उपहास जो उड़ाना
था.....स्वंतत्र
भारत में के इतिहास में विकास
के लिए बनीं परियोजनाओं में
दामोदर नदी घाटी परियोजना
ज्यादा तो नही पर करीब 30
प्रतिशत समुदाय
अधारित परियोजना जरूर थी...लेकिन
इस परियोजना में भी स्थानीय
लोगों को कम बाहरी लोगों को
ज्यादा फायदा हुआ...विकास
में स्थानीय लोगों की अनदेखी
कही से भी समाज , सरकार
या नीति नियंताओं के लिए
फायदेमंद नही रही...अपने
देश में ही कुछ उदाहरण ऐसे
है..जो
इस बात को साबित करते है कि
विकास में स्थानीय समाज की
भागीदारी से सतत विकास संभव
है...राजस्थान
के विश्नोई समुदाय का उदारहण
दिया जा सकता है ...इन्होने
अपने पारंपरिक करीकों से न
केवल अपने क्षेत्र के पेड़ों
की रक्षा की बल्कि पारस्थितिकी
तंत्र में भी बहुत महत्वपूर्ण
भूमिका निभाई...भारत
के जल पुरूष राजेन्द्र सिंह
ने समुदाय अधारित योजनाए बनाकर
ही ..क्षेत्र
की तमाम नदियों को जीवित
किया..और
गिरते भूमिगत जल स्तर को उंचा
उठाया...ऐसे
ही राजस्थान की तमाम क्षेत्रों
में जल संरक्षण के लिए पारंपरिक
तरीकों का इस्तेमाल कर जल
संरक्षण किया जाता है ...इन
लोगों को कोई सरकार कोई संस्था
ये कहने नही आती की आप जल संरक्षण
किजीए...वहीं
सरकार के तमाम प्रयास के बावजूद
लोग शहरी क्षेत्रों में जल
सरंक्षम में महत्व नहीं
देते...सरकार
कितने ही प्रयास कर ले लेकिन
लोग न जल का सदुपयोग करते है..न
वर्षा जल का संरक्षण....क्योंकि
पहले तो सरकार ने सभी उपलब्ध
जल स्रोतों का दुरूपयोग
किया..उसके
बाद जनता के उपर जल संरक्षण
के काम को थोप दिया....ऐसे
में जनता सरकार की बेगारी नही
करना चाहती....
अब
बात आदिवासी क्षेत्रों के
विकास की करते है...स्वतंत्र
भारत में यदि कोई सबसे सरकार
से सबसे ज्यदा शोषित हुआ है
तो वो है देश का आदिवासी
समाज...कहने
को देश में लोकतांत्रिक सरकार
है...भारत
का संविधान का सबको समान अधिकार
देता है ...लेकिन
क्या इस देश में समानता लागू
हो पाई कत्तई नहीं...आदिवासी
बहुल क्षेत्रों में विकास के
नाम जितना विनाश हुआ शायद कही
नही हुआ शायद ये देश का दुर्भाग्य
है कि जिन क्षेत्रों में आदिवासी
रहते है उन्ही क्षेत्रों में
देश के महत्वपूर्ण संसाधन
पाए जाते है ...और
इन समुदायों की अनदेखी कर जो
विकास किए गए है वो किसी विनाश
से कम नहीं हैं....आदिवासी
बहुल इलाकों में खनिजों के
दोहन के लिए लाखों परिवारों
को उजाड़ दिया गया...छत्तीसगढ़,
ओडिशा.
झारखंड बंगाल
में हज़ारों आदिवासी गांवों
को निजी कंपनियो के दबाव में
उज़ाड़ दिया गया...उजाड़ने
के पीछे तर्क दिया गया कि खनिज
संसाधनो के दोहन से देश और
समाज का विकास होगा...लेकिन
क्या इन क्षेत्रों के आदिवासियों
का विकास हुआ...नहीं
हुआ बल्कि इन्हे इनके ही
प्राकृतिक इलाकों से खदेड़
दिया गया...इन
लोगों के न पुर्नवास की व्यवस्था
की गई...और
न ही इनकों रोजगार मिला...ज्यादा
कुछ नहीं इस बात को सोचिए कि
क्या इनके घरों को उजाड़ने
से पहले इनसे पूछा तक गया...क्या
इनके इलाकों में उद्योग कौन
सा, कैसे,
किस प्रकार
लगाया जाए कभी इन लोगों से
विचार विमर्श किया गया...आप
इन लाइनों पर सवाल खड़े कर
सकते..कि
किसी भी उद्योग को लगाने के
लिए सरकार जनता से क्यों
पूछे..पर
सोचिए आलीशन कोठियों में बैठकर
योजनाए बनाने वाली नौकरशाही
अगर जनता से प्रत्यक्ष रूप
से राय मिशविरा कर योजनाओं
को धरातल पर लागू करती है जिसमें
स्थानीय जनता की भी सहमती हो
तो जनता सरकार के उस काम को
अपना समझ कर स्वीकार करेगी...आखिर
क्यों आज आदिवासी लोग अपने
ही सरकार के खिलाफ हथियार उठाए
हुए है ...क्यों
लोग सरकार के उस विकास की अवधरणा
से सहमत नही है ...जिसका
विकास सरकार कर रही है...इसलिए
की सरकार के विकास में उस जनता
की भागीदारी नगण्य है...
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