शुक्रवार, 10 जून 2011

डीयू से देहरादून

उन दिनों खिलती थी
हिमालय की गोद में वो फिज़ाये
उड़ते थे बादल
और पकड़ती थी हमारी बाहें
चारो तरफ कलकलाते थे नीर
और उन्हे देखती थी हमारी निगाहें
पर आज कहां आ गये हम......
कहां आ गये हम..................
......



जब कभी मैं कुछ पल अपनी जिंदगी को रोक देता हूं..और मुड़ कर पीछे देखता हूं..
तो मन में फिर वही पुरानी तस्वीरें उभर आती हैं..उँचे पहाड़ो से गिरते कोमल
नीर सौन्दर्य प्रकृति की गोद में बड़े-बड़े सुनहरे रंगबिरंगे झिलमिल पेड़-पौधे ,
गगन चुमते पहाड़ सूरज की रोशनी में चमचमाते खिलखिलाते पर्वत,
भुल-भुलैया जैसे घुमावदार रास्ते ...और उपर से शरारती ललचाते बादल पास आकर
फिर उड़ जाते ......मेरे जिंदगी के बीते लम्हे कुछ इस तरह से तस्वीर बनाते हैं
 दिल्ली विश्वविद्यालय में जब मैं पढ़ता था ..तो वे काँलेज के दिन कुछ इस तरह
कुछ इस तरह से हुआ करते थे  ...उत्तराखण्ड़ की वीदियों में हम दो  बार सैर करने 
 गये थे.. हम सारे दोस्त दिन के समय हिमालय कि उदभूत सौन्दर्य से परिपूर्ण वादियो  में
घूमते थे...और चादनी रात के समय नदियो के किनारे बैठकर खूब शोर मचाते थे..
चकराता में अपने होटल कि खिड़कियो से बादल को पकड़ते..थे..पर्वतो कि रानी मसूरी
में प्रतिदिन कैम्पटी फाल नहाने जाते थे...रात को होटल में तकियो से लड़ाई करते
थक जाते थे तो...होटल में खिड़कियो के शीशे तोड़ते...
यहाँ से मन भर गया तो ..सहस्त्रधारा चले गये .. सहस्त्रधारा हमारे आगमन को
तैयार था...वहीं सूरज छुपने को उतावला को तैयार....आसमान में लालिमा छायी थी ..
पहाड़ो कि आखों से खुशी के नीर बह रहे थे ...झरनों से नीरे नांरगी बन के पास आ
रहीं थी ....वास्तव में क्या अदभूत नाजारा था ....प्रकृति के इस कोमल सौन्दर्य को 
हमारी नज़र न लगे ...यही सोच कर हम यहाँ से तीन दिन बाद लैंसडांन चले गये ..
लैंसडांन की खूबसूरत वादियां और इसकी पहरे में लगे गढ़वाल राइफल के जवान
तैनात थे...आवारो कि तरह घूमने पर तो प्रतिबंध था ....पर हम सबने आशिको कि
तरह घूमने में कोइ कोर कसर नहीं छोड़ा....जी भर के मजे लिये...मन में आया तो
टिफिन टाँप गये ..उससे मन भरा तो गढ़वाल राइफल ...संतोषी माता मंदिर...और
गढ़वाल कि वादियो में लम्बे...सुन्दर पेड़ो के बीच कई दिन बीताये...यादे इतनी गहरी
थी कि अन्तिम दिन जब हम वहाँ से वापस आने को तैयार हुये सबकी आँखो में थे ..
प्रकृति को देखा नहीं गया ...और गढ़वाल में भी आसुओ के बारिश होने लगी....फिर
भी हम उन हसीन वादिओ को छोड़कर चले आये ...........
अब मेरे काँलेज के वे दिन खत्म हो गये..सभी दोस्त दूर हो गये..य़ादों में अब बस
तस्वारें ही बच गयी हैं .. जिन्हे कभी देखता हूं तो न मुस्कुरा पाता हूं न आंसू गिरा
पाता हूं....सोचता हू कि काश !  वे दिन फिर लौटकर आ जाते ...और हम सभी फिर
एक साथ मिलकर हिमालय कि सौन्दर्य के साथ अठगेलिया उड़ाते........


रविचन्द ...

डीयू से देहरादून

उन दिनों खिलती थी
हिमालय की गोद में वो फिज़ाये
उड़ते थे बादल
और पकड़ती थी हमारी बाहें
चारो तरफ कलकलाते थे नीर
और उन्हे देखती थी हमारी निगाहें
पर आज कहां आ गये हम......
कहां आ गये हम........................


जब कभी मैं कुछ पल अपनी जिंदगी को रोक देता हूं..और मुड़ कर पीछे देखता हूं..
तो मन में फिर वही पुरानी तस्वीरें उभर आती हैं..उँचे पहाड़ो से गिरते कोमल
नीर सौन्दर्य प्रकृति की गोद में बड़े-बड़े सुनहरे रंगबिरंगे झिलमिल पेड़-पौधे ,
गगन चुमते पहाड़ सूरज की रोशनी में चमचमाते खिलखिलाते पर्वत,
भुल-भुलैया जैसे घुमावदार रास्ते ...और उपर से शरारती ललचाते बादल पास आकर
फिर उड़ जाते ......मेरे जिंदगी के बीते लम्हे कुछ इस तरह से तस्वीर बनाते हैं
 दिल्ली विश्वविद्यालय में जब मैं पढ़ता था ..तो वे काँलेज के दिन कुछ इस तरह
कुछ इस तरह से हुआ करते थे  ...उत्तराखण्ड़ की वीदियों में हम दो  बार सैर करने 
 गये थे.. हम सारे दोस्त दिन के समय हिमालय कि उदभूत सौन्दर्य से परिपूर्ण वादियो  में
घूमते थे...और चादनी रात के समय नदियो के किनारे बैठकर खूब शोर मचाते थे..
चकराता में अपने होटल कि खिड़कियो से बादल को पकड़ते..थे..पर्वतो कि रानी मसूरी
में प्रतिदिन कैम्पटी फाल नहाने जाते थे...रात को होटल में तकियो से लड़ाई करते
थक जाते थे तो...होटल में खिड़कियो के शीशे तोड़ते...
यहाँ से मन भर गया तो ..सहस्त्रधारा चले गये .. सहस्त्रधारा हमारे आगमन को
तैयार था...वहीं सूरज छुपने को उतावला को तैयार....आसमान में लालिमा छायी थी ..
पहाड़ो कि आखों से खुशी के नीर बह रहे थे ...झरनों से नीरे नांरगी बन के पास आ
रहीं थी ....वास्तव में क्या अदभूत नाजारा था ....प्रकृति के इस कोमल सौन्दर्य को 
हमारी नज़र न लगे ...यही सोच कर हम यहाँ से तीन दिन बाद लैंसडांन चले गये ..
लैंसडांन की खूबसूरत वादियां और इसकी पहरे में लगे गढ़वाल राइफल के जवान
तैनात थे...आवारो कि तरह घूमने पर तो प्रतिबंध था ....पर हम सबने आशिको कि
तरह घूमने में कोइ कोर कसर नहीं छोड़ा....जी भर के मजे लिये...मन में आया तो
टिफिन टाँप गये ..उससे मन भरा तो गढ़वाल राइफल ...संतोषी माता मंदिर...और
गढ़वाल कि वादियो में लम्बे...सुन्दर पेड़ो के बीच कई दिन बीताये...यादे इतनी गहरी
थी कि अन्तिम दिन जब हम वहाँ से वापस आने को तैयार हुये सबकी आँखो में थे ..
प्रकृति को देखा नहीं गया ...और गढ़वाल में भी आसुओ के बारिश होने लगी....फिर
भी हम उन हसीन वादिओ को छोड़कर चले आये ...........
अब मेरे काँलेज के वे दिन खत्म हो गये..सभी दोस्त दूर हो गये..य़ादों में अब बस
तस्वारें ही बच गयी हैं .. जिन्हे कभी देखता हूं तो न मुस्कुरा पाता हूं न आंसू गिरा
पाता हूं....सोचता हू कि काश !  वे दिन फिर लौटकर आ जाते ...और हम सभी फिर
एक साथ मिलकर हिमालय कि सौन्दर्य के साथ अठगेलिया उड़ाते........


रविचन्द ...

वर्तमान मीडिया का जंतर-मंतर

एक 75 साल के बुढ्ढे कि एक आवाज पर जंतर मंतर पर वो हुजूम उमड़ा
जो केवल जेपी के समय रामलीला मैदान में उमडा था ..जेपी कि तुलना अण्णा से नहीं की जा सकती पर दोनों के विचारो और समय के बारे में एक बार सोचना हमारा फर्ज़ जरुर बनता हैं.. ताकि 40 सालो के दैरान गुजरी एक पीढ़ी  हुयी समाज में हुये तमाम बदालवो की गहराईयो के जान सके....जहाँ तक मेरे विचार में समाज के अन्दर जो सबसे बड़ बदलाव हुआ वो इलेक्ट्राँनिक मीडिया का आगमन था ...जिसे आज भी कई लोग बुद्दु बक्सा कहते हैं ...वाक्ई में मैने कभी सोचा नहीं था कि एक बक्सा मेरे घर में आयेगा और मुझे ये बताने में इतना सक्षम होगा की जंतर मंतर पर जाना हैं ....और रामदेव को वही काम करते हुये मुझे गाली देना हैं ...कैमरे कि भीड़ ने कभी  कभी जंतर मंतर की तुलना जैसमीन आन्दोलन से जरुर कर दिया ...पर मुझे इतना सोचने पर जरुर विवस कर  आखिर ऐसा  क्या  हैं कि  बाजारवाद की दौड़ में  घर की बेडरुम या आपिस में बैठने  की बजाऐ इंसान धूप में धक्के खा रहा हैं ....दरअसल इंसान को वहाँ तक ले जाने वाला वो मीडिया था जो उसी इंसान को ये बतात हैं कि अगर आप नोकिया का फोन ऱखते हैं तो आप इंसान हैं अन्यथा आप कुत्ता हैं ....खैर इसे छोडि़ये बात मुद्दे कि करते हैं ..ताकत मीडिया कि  देखते हैं ...एक दिन अण्णा ने कहा दूसरे दिन 20000 हजार से ज्यादा लोग राजघाट पहुज गये ..कहने वाले कह सकते हैं की लोग भ्रट्राचार से परेशान हैं ..लोग सरकार से नाराज हैं वैगरह वैगेरह .....पर यकिन मानिये इसके पीछे एक बड़ी ताकत जो थी... वो उस कैमरे कि थी ...जिसे हम इलेक्ट्रनिक मीडिया कहते हैं
इसी मिसा ने संसद के एक पूरे सत्र को चलने नहीं देने पर मजबूर कर दिया..पाक साफ समझी जाने वाली सेना को नापाक कर दिया ...पर कइयो को बिना मतलब बरबाद भी कर दिया ....वैसे मुझे  भी नही पता था कि मीडिया अपनी ताकत दिखाती कैसे है पर आजकल इतने लाइव कवरेज होते हैं कि भी ये फ़र्क समझने लगा हू..रामदेव को ले लीजिये किसी कैमरो उसे बाबा बनाया तो किसी ने काँर्पोरेट बाबा बनाया किसी उसे अनशन करी बताया तो किसी उसे धनशन कारी बनाया ....किसी कैमरे ने उसे सत्याग्रही बताया तो किसी उसे सरकार से सीनाजोरी बताया...वाकई ताकत तो हैं मीडियी के अन्दर.... दो दिन में रामदेव को गाँधी बताती हैं तो अगले ही दिन उसे पूरा नंगा कर बाबा के रुप में एक छुपा हुआ उद्योगपति का चेहरा भी दिखाती हैं ...